\id JOB उर्दू जियो वर्झ़न \ide UTF-8 \h अय्यूब \toc1 अय्यूब \toc2 अय्यूब \toc3 अय्यूब \mt1 अय्यूब \c 1 \s1 अय्यूब की दीनदारी \p \v 1 मुल्के-ऊज़ में एक बेइलज़ाम आदमी रहता था जिसका नाम अय्यूब था। वह सीधी राह पर चलता, अल्लाह का ख़ौफ़ मानता और हर बुराई से दूर रहता था। \v 2 उसके सात बेटे और तीन बेटियाँ पैदा हुईं। \v 3 साथ साथ उसके बहुत माल-मवेशी थे : 7,000 भेड़-बकरियाँ, 3,000 ऊँट, बैलों की 500 जोड़ियाँ और 500 गधियाँ। उसके बेशुमार नौकर-नौकरानियाँ भी थे। ग़रज़ मशरिक़ के तमाम बाशिंदों में इस आदमी की हैसियत सबसे बड़ी थी। \p \v 4 उसके बेटों का दस्तूर था कि बारी बारी अपने घरों में ज़ियाफ़त करें। इसके लिए वह अपनी तीन बहनों को भी अपने साथ खाने और पीने की दावत देते थे। \v 5 हर दफ़ा जब ज़ियाफ़त के दिन इख़्तिताम तक पहुँचते तो अय्यूब अपने बच्चों को बुलाकर उन्हें पाक-साफ़ कर देता और सुबह-सवेरे उठकर हर एक के लिए भस्म होनेवाली एक एक क़ुरबानी पेश करता। क्योंकि वह कहता था, “हो सकता है मेरे बच्चों ने गुनाह करके दिल में अल्लाह पर लानत की हो।” चुनाँचे अय्यूब हर ज़ियाफ़त के बाद ऐसा ही करता था। \s1 अय्यूब के किरदार पर इलज़ाम \p \v 6 एक दिन फ़रिश्ते \f + \fr 1:6 \ft लफ़्ज़ी तरजुमा : अल्लाह के फ़रज़ंद। \f* अपने आपको रब के हुज़ूर पेश करने आए। इबलीस भी उनके दरमियान मौजूद था। \v 7 रब ने इबलीस से पूछा, “तू कहाँ से आया है?” इबलीस ने जवाब दिया, “मैं दुनिया में इधर-उधर घुमता-फिरता रहा।” \p \v 8 रब बोला, “क्या तूने मेरे बंदे अय्यूब पर तवज्जुह दी? दुनिया में उस जैसा कोई और नहीं। क्योंकि वह बेइलज़ाम है, वह सीधी राह पर चलता, अल्लाह का ख़ौफ़ मानता और हर बुराई से दूर रहता है।” \p \v 9 इबलीस ने रब को जवाब दिया, “बेशक, लेकिन क्या अय्यूब यों ही अल्लाह का ख़ौफ़ मानता है? \v 10 तूने तो उस के, उसके घराने के और उस की तमाम मिलकियत के इर्दगिर्द हिफ़ाज़ती बाड़ लगाई है। और जो कुछ उसके हाथ ने किया उस पर तूने बरकत दी, नतीजे में उस की भेड़-बकरियाँ और गाय-बैल पूरे मुल्क में फैल गए हैं। \v 11 लेकिन वह क्या करेगा अगर तू अपना हाथ ज़रा बढ़ाकर सब कुछ तबाह करे जो उसे हासिल है। तब वह तेरे मुँह पर ही तुझ पर लानत करेगा।” \p \v 12 रब ने इबलीस से कहा, “ठीक है, जो कुछ भी उसका है वह तेरे हाथ में है। लेकिन उसके बदन को हाथ न लगाना।” इबलीस रब के हुज़ूर से चला गया। \p \v 13 एक दिन अय्यूब के बेटे-बेटियाँ मामूल के मुताबिक़ ज़ियाफ़त कर रहे थे। वह बड़े भाई के घर में खाना खा रहे और मै पी रहे थे। \v 14 अचानक एक क़ासिद अय्यूब के पास पहुँचकर कहने लगा, “बैल खेत में हल चला रहे थे और गधियाँ साथवाली ज़मीन पर चर रही थीं \v 15 कि सबा के लोगों ने हम पर हमला करके सब कुछ छीन लिया। उन्होंने तमाम मुलाज़िमों को तलवार से मार डाला, सिर्फ़ मैं ही आपको यह बताने के लिए बच निकला हूँ।” \p \v 16 वह अभी बात कर ही रहा था कि एक और क़ासिद पहुँचा जिसने इत्तला दी, “अल्लाह की आग ने आसमान से गिरकर आपकी तमाम भेड़-बकरियों और मुलाज़िमों को भस्म कर दिया। सिर्फ़ मैं ही आपको यह बताने के लिए बच निकला हूँ।” \p \v 17 वह अभी बात कर ही रहा था कि तीसरा क़ासिद पहुँचा। वह बोला, “बाबल के कसदियों ने तीन गुरोहों में तक़सीम होकर हमारे ऊँटों पर हमला किया और सब कुछ छीन लिया। तमाम मुलाज़िमों को उन्होंने तलवार से मार डाला, सिर्फ़ मैं ही आपको यह बताने के लिए बच निकला हूँ।” \p \v 18 वह अभी बात कर ही रहा था कि चौथा क़ासिद पहुँचा। उसने कहा, “आपके बेटे-बेटियाँ अपने बड़े भाई के घर में खाना खा रहे और मै पी रहे थे \v 19 कि अचानक रेगिस्तान की जानिब से एक ज़ोरदार आँधी आई जो घर के चारों कोनों से यों टकराई कि वह जवानों पर गिर पड़ा। सबके सब हलाक हो गए। सिर्फ़ मैं ही आपको यह बताने के लिए बच निकला हूँ।” \p \v 20 यह सब कुछ सुनकर अय्यूब उठा। अपना लिबास फाड़कर उसने अपने सर के बाल मुँडवाए। फिर उसने ज़मीन पर गिरकर औंधे मुँह रब को सिजदा किया। \v 21 वह बोला, “मैं नंगी हालत में माँ के पेट से निकला और नंगी हालत में कूच कर जाऊँगा। रब ने दिया, रब ने लिया, रब का नाम मुबारक हो!” \p \v 22 इस सारे मामले में अय्यूब ने न गुनाह किया, न अल्लाह के बारे में कुफ़र बका। \c 2 \s1 अय्यूब पर बीमारी का हमला \p \v 1 एक दिन फ़रिश्ते \f + \fr 2:1 \ft लफ़्ज़ी तरजुमा : अल्लाह के फ़रज़ंद। \f* दुबारा अपने आपको रब के हुज़ूर पेश करने आए। इबलीस भी उनके दरमियान मौजूद था। \v 2 रब ने इबलीस से पूछा, “तू कहाँ से आया है?” इबलीस ने जवाब दिया, “मैं दुनिया में इधर-उधर घुमता-फिरता रहा।” \v 3 रब बोला, “क्या तूने मेरे बंदे अय्यूब पर तवज्जुह दी? ज़मीन पर उस जैसा कोई और नहीं। वह बेइलज़ाम है, वह सीधी राह पर चलता, अल्लाह का ख़ौफ़ मानता और हर बुराई से दूर रहता है। अभी तक वह अपने बेइलज़ाम किरदार पर क़ायम है हालाँकि तूने मुझे उसे बिलावजह तबाह करने पर उकसाया।” \p \v 4 इबलीस ने जवाब दिया, “खाल का बदला खाल ही होता है! इनसान अपनी जान को बचाने के लिए अपना सब कुछ दे देता है। \v 5 लेकिन वह क्या करेगा अगर तू अपना हाथ ज़रा बढ़ाकर उसका जिस्म \f + \fr 2:5 \ft लफ़्ज़ी तरजुमा : गोश्त-पोस्त और हड्डियाँ। \f* छू दे? तब वह तेरे मुँह पर ही तुझ पर लानत करेगा।” \p \v 6 रब ने इबलीस से कहा, “ठीक है, वह तेरे हाथ में है। लेकिन उस की जान को मत छेड़ना।” \v 7 इबलीस रब के हुज़ूर से चला गया और अय्यूब को सताने लगा। चाँद से लेकर तल्वे तक अय्यूब के पूरे जिस्म पर बदतरीन क़िस्म के फोड़े निकल आए। \v 8 तब अय्यूब राख में बैठ गया और ठीकरे से अपनी जिल्द को खुरचने लगा। \p \v 9 उस की बीवी बोली, “क्या तू अब तक अपने बेइलज़ाम किरदार पर क़ायम है? अल्लाह पर लानत करके दम छोड़ दे!” \v 10 लेकिन उसने जवाब दिया, “तू अहमक़ औरत की-सी बातें कर रही है। अल्लाह की तरफ़ से भलाई तो हम क़बूल करते हैं, तो क्या मुनासिब नहीं कि उसके हाथ से मुसीबत भी क़बूल करें?” इस सारे मामले में अय्यूब ने अपने मुँह से गुनाह न किया। \s1 अय्यूब के तीन दोस्त \p \v 11 अय्यूब के तीन दोस्त थे। उनके नाम इलीफ़ज़ तेमानी, बिलदद सूख़ी और ज़ूफ़र नामाती थे। जब उन्हें इत्तला मिली कि अय्यूब पर यह तमाम आफ़त आ गई है तो हर एक अपने घर से रवाना हुआ। उन्होंने मिलकर फ़ैसला किया कि इकट्ठे अफ़सोस करने और अय्यूब को तसल्ली देने जाएंगे। \v 12 जब उन्होंने दूर से अपनी नज़र उठाकर अय्यूब को देखा तो उस की इतनी बुरी हालत थी कि वह पहचाना नहीं जाता था। तब वह ज़ारो-क़तार रोने लगे। अपने कपड़े फाड़कर उन्होंने अपने सरों पर ख़ाक डाली। \v 13 फिर वह उसके साथ ज़मीन पर बैठ गए। सात दिन और सात रात वह इसी हालत में रहे। इस पूरे अरसे में उन्होंने अय्यूब से एक भी बात न की, क्योंकि उन्होंने देखा कि वह शदीद दर्द का शिकार है। \c 3 \s1 अय्यूब की आहो-ज़ारी \p \v 1 तब अय्यूब बोल उठा और अपने जन्म दिन पर लानत करने लगा। \v 2 उसने कहा, \p \v 3 “वह दिन मिट जाए जब मैंने जन्म लिया, वह रात जिसने कहा, ‘पेट में लड़का पैदा हुआ है!’ \v 4 वह दिन अंधेरा ही अंधेरा हो जाए, एक किरण भी उसे रौशन न करे। अल्लाह भी जो बुलंदियों पर है उसका ख़याल न करे। \v 5 तारीकी और घना अंधेरा उस पर क़ब्ज़ा करे, काले काले बादल उस पर छाए रहें, हाँ वह रौशनी से महरूम होकर सख़्त दहशतज़दा हो जाए। \v 6 घना अंधेरा उस रात को छीन ले जब मैं माँ के पेट में पैदा हुआ। उसे न साल, न किसी महीने के दिनों में शुमार किया जाए। \v 7 वह रात बाँझ रहे, उसमें ख़ुशी का नारा न लगाया जाए। \v 8 जो दिनों पर लानत भेजते और लिवियातान अज़दहे को तहरीक में लाने के क़ाबिल होते हैं वही उस रात पर लानत करें। \v 9 उस रात के धुँधलके में टिमटिमानेवाले सितारे बुझ जाएँ, फ़जर का इंतज़ार करना बेफ़ायदा ही रहे बल्कि वह रात तुलूए-सुबह की पलकें \f + \fr 3:9 \ft पलकों से मुराद पहली किरणें है। \f* भी न देखे। \v 10 क्योंकि उसने मेरी माँ को मुझे जन्म देने से न रोका, वरना यह तमाम मुसीबत मेरी आँखों से छुपी रहती। \p \v 11 मैं पैदाइश के वक़्त क्यों मर न गया, माँ के पेट से निकलते वक़्त जान क्यों न दे दी? \v 12 माँ के घुटनों ने मुझे ख़ुशआमदीद क्यों कहा, उस की छातियों ने मुझे दूध क्यों पिलाया? \v 13 अगर यह न होता तो इस वक़्त मैं सुकून से लेटा रहता, आराम से सोया होता। \v 14 मैं उन्हीं के साथ होता जो पहले बादशाह और दुनिया के मुशीर थे, जिन्होंने खंडरात अज़ सरे-नौ तामीर किए। \v 15 मैं उनके साथ होता जो पहले हुक्मरान थे और अपने घरों को सोने-चाँदी से भर लेते थे। \v 16 मुझे ज़ाया हो जानेवाले बच्चे की तरह क्यों न ज़मीन में दबा दिया गया? मुझे उस बच्चे की तरह क्यों न दफ़नाया गया जिसने कभी रौशनी न देखी? \v 17 उस जगह बेदीन अपनी बेलगाम हरकतों से बाज़ आते और वह आराम करते हैं जो तगो-दौ करते करते थक गए थे। \v 18 वहाँ क़ैदी इतमीनान से रहते हैं, उन्हें उस ज़ालिम की आवाज़ नहीं सुननी पड़ती जो उन्हें जीते-जी हाँकता रहा। \v 19 उस जगह छोटे और बड़े सब बराबर होते हैं, ग़ुलाम अपने मालिक से आज़ाद रहता है। \p \v 20 अल्लाह मुसीबतज़दों को रौशनी और शिकस्तादिलों को ज़िंदगी क्यों अता करता है? \v 21 वह तो मौत के इंतज़ार में रहते हैं लेकिन बेफ़ायदा। वह खोद खोदकर उसे यों तलाश करते हैं जिस तरह किसी पोशीदा ख़ज़ाने को। \v 22 अगर उन्हें क़ब्र नसीब हो तो वह बाग़ बाग़ होकर जशन मनाते हैं। \v 23 अल्लाह उसको ज़िंदा क्यों रखता जिसकी नज़रों से रास्ता ओझल हो गया है और जिसके चारों तरफ़ उसने बाड़ लगाई है। \v 24 क्योंकि जब मुझे रोटी खानी है तो हाय हाय करता हूँ, मेरी आहें पानी की तरह मुँह से फूट निकलती हैं। \v 25 जिस चीज़ से मैं डरता था वह मुझ पर आई, जिससे मैं ख़ौफ़ खाता था उससे मेरा वास्ता पड़ा। \v 26 न मुझे इतमीनान हुआ, न सुकून या आराम बल्कि मुझ पर बेचैनी ग़ालिब आई।” \c 4 \s1 इलीफ़ज़ का एतराज़ : इनसान अल्लाह के हुज़ूर रास्त नहीं ठहर सकता \p \v 1 यह कुछ सुनकर इलीफ़ज़ तेमानी ने जवाब दिया, \p \v 2 “क्या तुझसे बात करने का कोई फ़ायदा है? तू तो यह बरदाश्त नहीं कर सकता। लेकिन दूसरी तरफ़ कौन अपने अलफ़ाज़ रोक सकता है? \v 3 ज़रा सोच ले, तूने ख़ुद बहुतों को तरबियत दी, कई लोगों के थकेमाँदे हाथों को तक़वियत दी है। \v 4 तेरे अलफ़ाज़ ने ठोकर खानेवाले को दुबारा खड़ा किया, डगमगाते हुए घुटने तूने मज़बूत किए। \v 5 लेकिन अब जब मुसीबत तुझ पर आ गई तो तू उसे बरदाश्त नहीं कर सकता, अब जब ख़ुद उस की ज़द में आ गया तो तेरे रोंगटे खड़े हो गए हैं। \v 6 क्या तेरा एतमाद इस पर मुनहसिर नहीं है कि तू अल्लाह का ख़ौफ़ माने, तेरी उम्मीद इस पर नहीं कि तू बेइलज़ाम राहों पर चले? \p \v 7 सोच ले, क्या कभी कोई बेगुनाह हलाक हुआ है? हरगिज़ नहीं! जो सीधी राह पर चलते हैं वह कभी रूए-ज़मीन पर से मिट नहीं गए। \v 8 जहाँ तक मैंने देखा, जो नाइनसाफ़ी का हल चलाए और नुक़सान का बीज बोए वह इसकी फ़सल काटता है। \v 9 ऐसे लोग अल्लाह की एक फूँक से तबाह, उसके क़हर के एक झोंके से हलाक हो जाते हैं। \v 10 शेरबबर की दहाड़ें ख़ामोश हो गईं, जवान शेर के दाँत झड़ गए हैं। \v 11 शिकार न मिलने की वजह से शेर हलाक हो जाता और शेरनी के बच्चे परागंदा हो जाते हैं। \p \v 12 एक बार एक बात चोरी-छुपे मेरे पास पहुँची, उसके चंद अलफ़ाज़ मेरे कान तक पहुँच गए। \v 13 रात को ऐसी रोयाएँ पेश आईं जो उस वक़्त देखी जाती हैं जब इनसान गहरी नींद सोया होता है। इनसे मैं परेशानकुन ख़यालात में मुब्तला हुआ। \v 14 मुझ पर दहशत और थरथराहट ग़ालिब आई, मेरी तमाम हड्डियाँ लरज़ उठीं। \v 15 फिर मेरे चेहरे के सामने से हवा का झोंका गुज़र गया और मेरे तमाम रोंगटे खड़े हो गए। \v 16 एक हस्ती मेरे सामने खड़ी हुई जिसे मैं पहचान न सका, एक शक्ल मेरी आँखों के सामने दिखाई दी। ख़ामोशी थी, फिर एक आवाज़ ने फ़रमाया, \v 17 ‘क्या इनसान अल्लाह के हुज़ूर रास्तबाज़ ठहर सकता है, क्या इनसान अपने ख़ालिक़ के सामने पाक-साफ़ ठहर सकता है?’ \v 18 देख, अल्लाह अपने ख़ादिमों पर भरोसा नहीं करता, अपने फ़रिश्तों को वह अहमक़ ठहराता है। \v 19 तो फिर वह इनसान पर क्यों भरोसा रखे जो मिट्टी के घर में रहता, ऐसे मकान में जिसकी बुनियाद ख़ाक पर ही रखी गई है। उसे पतंगे की तरह कुचला जाता है। \v 20 सुबह को वह ज़िंदा है लेकिन शाम तक पाश पाश हो जाता, अबद तक हलाक हो जाता है, और कोई भी ध्यान नहीं देता। \v 21 उसके ख़ैमे के रस्से ढीले करो तो वह हिकमत हासिल किए बग़ैर इंतक़ाल कर जाता है। \c 5 \s1 अल्लाह की तादीब तसलीम कर \p \v 1 बेशक आवाज़ दे, लेकिन कौन जवाब देगा? कोई नहीं! मुक़द्दसीन में से तू किसकी तरफ़ रुजू कर सकता है? \v 2 क्योंकि अहमक़ की रंजीदगी उसे मार डालती, सादालौह की सरगरमी उसे मौत के घाट उतार देती है। \v 3 मैंने ख़ुद एक अहमक़ को जड़ पकड़ते देखा, लेकिन मैंने फ़ौरन ही उसके घर पर लानत भेजी। \v 4 उसके फ़रज़ंद नजात से दूर रहते। उन्हें शहर के दरवाज़े में रौंदा जाता है, और बचानेवाला कोई नहीं। \v 5 भूके उस की फ़सल खा जाते, काँटेदार बाड़ों में महफ़ूज़ माल भी छीन लेते हैं। प्यासे अफ़राद हाँपते हुए उस की दौलत के पीछे पड़ जाते हैं। \v 6 क्योंकि बुराई ख़ाक से नहीं निकलती और दुख-दर्द मिट्टी से नहीं फूटता \v 7 बल्कि इनसान ख़ुद इसका बाइस है, दुख-दर्द उस की विरासत में ही पाया जाता है। यह इतना यक़ीनी है जितना यह कि आग की चिंगारियाँ ऊपर की तरफ़ उड़ती हैं। \p \v 8 लेकिन अगर मैं तेरी जगह होता तो अल्लाह से दरियाफ़्त करता, उसे ही अपना मामला पेश करता। \v 9 वही इतने अज़ीम काम करता है कि कोई उनकी तह तक नहीं पहुँच सकता, इतने मोजिज़े कि कोई उन्हें गिन नहीं सकता। \v 10 वही रूए-ज़मीन को बारिश अता करता, खुले मैदान पर पानी बरसा देता है। \v 11 पस्तहालों को वह सरफ़राज़ करता और मातम करनेवालों को उठाकर महफ़ूज़ मक़ाम पर रख देता है। \v 12 वह चालाकों के मनसूबे तोड़ देता है ताकि उनके हाथ नाकाम रहें। \v 13 वह दानिशमंदों को उनकी अपनी चालाकी के फंदे में फँसा देता है तो होशियारों की साज़िशें अचानक ही ख़त्म हो जाती हैं। \v 14 दिन के वक़्त उन पर अंधेरा छा जाता, और दोपहर के वक़्त भी वह टटोल टटोलकर फिरते हैं। \v 15 अल्लाह ज़रूरतमंदों को उनके मुँह की तलवार और ज़बरदस्त के क़ब्ज़े से बचा लेता है। \v 16 यों पस्तहालों को उम्मीद दी जाती और नाइनसाफ़ी का मुँह बंद किया जाता है। \p \v 17 मुबारक है वह इनसान जिसकी मलामत अल्लाह करता है! चुनाँचे क़ादिरे-मुतलक़ की तादीब को हक़ीर न जान। \v 18 क्योंकि वह ज़ख़मी करता लेकिन मरहम-पट्टी भी लगा देता है, वह ज़रब लगाता लेकिन अपने हाथों से शफ़ा भी बख़्शता है। \v 19 वह तुझे छः मुसीबतों से छुड़ाएगा, और अगर इसके बाद भी कोई आए तो तुझे नुक़सान नहीं पहुँचेगा। \v 20 अगर काल पड़े तो वह फ़िद्या देकर तुझे मौत से बचाएगा, जंग में तुझे तलवार की ज़द में आने नहीं देगा। \v 21 तू ज़बान के कोड़ों से महफ़ूज़ रहेगा, और जब तबाही आए तो डरने की ज़रूरत नहीं होगी। \v 22 तू तबाही और काल की हँसी उड़ाएगा, ज़मीन के वहशी जानवरों से ख़ौफ़ नहीं खाएगा। \v 23 क्योंकि तेरा खुले मैदान के पत्थरों के साथ अहद होगा, इसलिए उसके जंगली जानवर तेरे साथ सलामती से ज़िंदगी गुज़ारेंगे। \v 24 तू जान लेगा कि तेरा ख़ैमा महफ़ूज़ है। जब तू अपने घर का मुआयना करे तो मालूम होगा कि कुछ गुम नहीं हुआ। \v 25 तू देखेगा कि तेरी औलाद बढ़ती जाएगी, तेरे फ़रज़ंद ज़मीन पर घास की तरह फैलते जाएंगे। \v 26 तू वक़्त पर जमाशुदा पूलों की तरह उम्ररसीदा होकर क़ब्र में उतरेगा। \p \v 27 हमने तहक़ीक़ करके मालूम किया है कि ऐसा ही है। चुनाँचे हमारी बात सुनकर उसे अपना ले!” \c 6 \s1 अय्यूब का जवाब : साबित करो कि मुझसे क्या ग़लती हुई है \p \v 1 तब अय्यूब ने जवाब देकर कहा, \p \v 2 “काश मेरी रंजीदगी का वज़न किया जा सके और मेरी मुसीबत तराज़ू में तोली जा सके! \v 3 क्योंकि वह समुंदर की रेत से ज़्यादा भारी हो गई है। इसी लिए मेरी बातें बेतुकी-सी लग रही हैं। \v 4 क्योंकि क़ादिरे-मुतलक़ के तीर मुझमें गड़ गए हैं, मेरी रूह उनका ज़हर पी रही है। हाँ, अल्लाह के हौलनाक हमले मेरे ख़िलाफ़ सफ़आरा हैं। \v 5 क्या जंगली गधा ढीनचूँ ढीनचूँ करता है जब उसे घास दस्तयाब हो? या क्या बैल डकराता है जब उसे चारा हासिल हो? \v 6 क्या फीका खाना नमक के बग़ैर खाया जाता, या अंडे की सफेदी \f + \fr 6:6 \ft या ख़त्मी का रस। \f* में ज़ायक़ा है? \v 7 ऐसी चीज़ को मैं छूता भी नहीं, ऐसी ख़ुराक से मुझे घिन ही आती है। \p \v 8 काश मेरी गुज़ारिश पूरी हो जाए, अल्लाह मेरी आरज़ू पूरी करे! \v 9 काश वह मुझे कुचल देने के लिए तैयार हो जाए, वह अपना हाथ बढ़ाकर मुझे हलाक करे। \v 10 फिर मुझे कम अज़ कम तसल्ली होती बल्कि मैं मुस्तक़िल दर्द के मारे पेचो-ताब खाने के बावुजूद ख़ुशी मनाता कि मैंने क़ुद्दूस ख़ुदा के फ़रमानों का इनकार नहीं किया। \p \v 11 मेरी इतनी ताक़त नहीं कि मज़ीद इंतज़ार करूँ, मेरा क्या अच्छा अंजाम है कि सब्र करूँ? \v 12 क्या मैं पत्थरों जैसा ताक़तवर हूँ? क्या मेरा जिस्म पीतल जैसा मज़बूत है? \v 13 नहीं, मुझसे हर सहारा छीन लिया गया है, मेरे साथ ऐसा सुलूक हुआ है कि कामयाबी का इमकान ही नहीं रहा। \p \v 14 जो अपने दोस्त पर मेहरबानी करने से इनकार करे वह अल्लाह का ख़ौफ़ तर्क करता है। \v 15 मेरे भाइयों ने वादी की उन नदियों जैसी बेवफ़ाई की है जो बरसात के मौसम में अपने किनारों से बाहर आ जाती हैं। \v 16 उस वक़्त वह बर्फ़ से भरकर गदली हो जाती हैं, \v 17 लेकिन उरूज तक पहुँचते ही वह सूख जाती, तपती गरमी में ओझल हो जाती हैं। \v 18 तब क़ाफ़िले अपनी राहों से हट जाते हैं ताकि पानी मिल जाए, लेकिन बेफ़ायदा। वह रेगिस्तान में पहुँचकर तबाह हो जाते हैं। \v 19 तैमा के क़ाफ़िले इस पानी की तलाश में रहते, सबा के सफ़र करनेवाले ताजिर उस पर उम्मीद रखते हैं, \v 20 लेकिन बेसूद। जिस पर उन्होंने एतमाद किया वह उन्हें मायूस कर देता है। जब वहाँ पहुँचते हैं तो शरमिंदा हो जाते हैं। \p \v 21 तुम भी इतने ही बेकार साबित हुए हो। तुम हौलनाक बात देखकर दहशतज़दा हो गए हो। \v 22 क्या मैंने कहा, ‘मुझे तोह्फ़ा दे दो, अपनी दौलत में से मेरी ख़ातिर रिश्वत दो, \v 23 मुझे दुश्मन के हाथ से छुड़ाओ, फ़िद्या देकर ज़ालिम के क़ब्ज़े से बचाओ’? \p \v 24 मुझे साफ़ हिदायत दो तो मैं मानकर ख़ामोश हो जाऊँगा। मुझे बताओ कि किस बात में मुझसे ग़लती हुई है। \v 25 सीधी राह की बातें कितनी तकलीफ़देह हो सकती हैं! लेकिन तुम्हारी मलामत से मुझे किस क़िस्म की तरबियत हासिल होगी? \v 26 क्या तुम समझते हो कि ख़ाली अलफ़ाज़ मामले को हल करेंगे, गो तुम मायूसी में मुब्तला आदमी की बात नज़रंदाज़ करते हो? \v 27 क्या तुम यतीम के लिए भी क़ुरा डालते, अपने दोस्त के लिए भी सौदाबाज़ी करते हो? \p \v 28 लेकिन अब ख़ुद फ़ैसला करो, मुझ पर नज़र डालकर सोच लो। अल्लाह की क़सम, मैं तुम्हारे रूबरू झूट नहीं बोलता। \v 29 अपनी ग़लती तसलीम करो ताकि नाइनसाफ़ी न हो। अपनी ग़लती मान लो, क्योंकि अब तक मैं हक़ पर हूँ। \v 30 क्या मेरी ज़बान झूट बोलती है? क्या मैं फ़रेबदेह बातें पहचान नहीं सकता? \c 7 \s1 अल्लाह मुझे क्यों नहीं छोड़ता? \p \v 1 इनसान दुनिया में सख़्त ख़िदमत करने पर मजबूर होता है, जीते-जी वह मज़दूर की-सी ज़िंदगी गुज़ारता है। \v 2 ग़ुलाम की तरह वह शाम के साये का आरज़ूमंद होता, मज़दूर की तरह मज़दूरी के इंतज़ार में रहता है। \v 3 मुझे भी बेमानी महीने और मुसीबत की रातें नसीब हुई हैं। \v 4 जब बिस्तर पर लेट जाता तो सोचता हूँ कि कब उठ सकता हूँ? लेकिन लगता है कि रात कभी ख़त्म नहीं होगी, और मैं फ़जर तक बेचैनी से करवटें बदलता रहता हूँ। \v 5 मेरे जिस्म की हर जगह कीड़े और खुरंड फैल गए हैं, मेरी सुकड़ी हुई जिल्द में पीप पड़ गई है। \v 6 मेरे दिन जूलाहे की नाल \f + \fr 7:6 \ft यानी शटल। \f* से कहीं ज़्यादा तेज़ी से गुज़र गए हैं। वह अपने अंजाम तक पहुँच गए हैं, धागा ख़त्म हो गया है। \p \v 7 ऐ अल्लाह, ख़याल रख कि मेरी ज़िंदगी दम-भर की ही है! मेरी आँखें आइंदा कभी ख़ुशहाली नहीं देखेंगी। \v 8 जो मुझे इस वक़्त देखे वह आइंदा मुझे नहीं देखेगा। तू मेरी तरफ़ देखेगा, लेकिन मैं हूँगा नहीं। \v 9 जिस तरह बादल ओझल होकर ख़त्म हो जाता है उसी तरह पाताल में उतरनेवाला वापस नहीं आता। \v 10 वह दुबारा अपने घर वापस नहीं आएगा, और उसका मक़ाम उसे नहीं जानता। \p \v 11 चुनाँचे मैं वह कुछ रोक नहीं सकता जो मेरे मुँह से निकलना चाहता है। मैं रंजीदा हालत में बात करूँगा, अपने दिल की तलख़ी का इज़हार करके आहो-ज़ारी करूँगा। \v 12 ऐ अल्लाह, क्या मैं समुंदर या समुंदरी अज़दहा हूँ कि तूने मुझे नज़रबंद कर रखा है? \v 13 जब मैं कहता हूँ, ‘मेरा बिस्तर मुझे तसल्ली दे, सोने से मेरा ग़म हलका हो जाए’ \v 14 तो तू मुझे हौलनाक ख़ाबों से हिम्मत हारने देता, रोयाओं से मुझे दहशत खिलाता है। \v 15 मेरी इतनी बुरी हालत हो गई है कि सोचता हूँ, काश कोई मेरा गला घूँटकर मुझे मार डाले, काश मैं ज़िंदा न रहूँ बल्कि दम छोड़ूँ। \v 16 मैंने ज़िंदगी को रद्द कर दिया है, अब मैं ज़्यादा देर तक ज़िंदा नहीं रहूँगा। मुझे छोड़, क्योंकि मेरे दिन दम-भर के ही हैं। \p \v 17 इनसान क्या है कि तू उस की इतनी क़दर करे, उस पर इतना ध्यान दे? \v 18 वह इतना अहम तो नहीं है कि तू हर सुबह उसका मुआयना करे, हर लमहा उस की जाँच-पड़ताल करे। \v 19 क्या तू मुझे तकने से कभी नहीं बाज़ आएगा? क्या तू मुझे इतना सुकून भी नहीं देगा कि पल-भर के लिए थूक निगलूँ? \v 20 ऐ इनसान के पहरेदार, अगर मुझसे ग़लती हुई भी तो इससे मैंने तेरा क्या नुक़सान किया? तूने मुझे अपने ग़ज़ब का निशाना क्यों बनाया? मैं तेरे लिए बोझ क्यों बन गया हूँ? \v 21 तू मेरा जुर्म मुआफ़ क्यों नहीं करता, मेरा क़ुसूर दरगुज़र क्यों नहीं करता? क्योंकि जल्द ही मैं ख़ाक हो जाऊँगा। अगर तू मुझे तलाश भी करे तो नहीं मिलूँगा, क्योंकि मैं हूँगा नहीं।” \c 8 \s1 बिलदद का जवाब : अपने गुनाह से तौबा कर! \p \v 1 तब बिलदद सूख़ी ने जवाब देकर कहा, \p \v 2 “तू कब तक इस क़िस्म की बातें करेगा? कब तक तेरे मुँह से आँधी के झोंके निकलेंगे? \v 3 क्या अल्लाह इनसाफ़ का ख़ून कर सकता, क्या क़ादिरे-मुतलक़ रास्ती को आगे पीछे कर सकता है? \v 4 तेरे बेटों ने उसका गुनाह किया है, इसलिए उसने उन्हें उनके जुर्म के क़ब्ज़े में छोड़ दिया। \v 5 अब तेरे लिए लाज़िम है कि तू अल्लाह का तालिब हो और क़ादिरे-मुतलक़ से इल्तिजा करे, \v 6 कि तू पाक हो और सीधी राह पर चले। फिर वह अब भी तेरी ख़ातिर जोश में आकर तेरी रास्तबाज़ी की सुकूनतगाह को बहाल करेगा। \v 7 तब तेरा मुस्तक़बिल निहायत अज़ीम होगा, ख़ाह तेरी इब्तिदाई हालत कितनी पस्त क्यों न हो। \p \v 8 गुज़श्ता नसल से ज़रा पूछ ले, उस पर ध्यान दे जो उनके बापदादा ने तहक़ीक़ात के बाद मालूम किया। \v 9 क्योंकि हम ख़ुद कल ही पैदा हुए और कुछ नहीं जानते, ज़मीन पर हमारे दिन साये जैसे आरिज़ी हैं। \v 10 लेकिन यह तुझे तालीम देकर बात बता सकते हैं, यह तुझे अपने दिल में जमाशुदा इल्म पेश कर सकते हैं। \v 11 क्या आबी नरसल वहाँ उगता है जहाँ दलदल नहीं? क्या सरकंडा वहाँ फलता-फूलता है जहाँ पानी नहीं? \v 12 उस की कोंपलें अभी निकल रही हैं और उसे तोड़ा नहीं गया कि अगर पानी न मिले तो बाक़ी हरियाली से पहले ही सूख जाता है। \v 13 यह है उनका अंजाम जो अल्लाह को भूल जाते हैं, इसी तरह बेदीन की उम्मीद जाती रहती है। \v 14 जिस पर वह एतमाद करता है वह निहायत ही नाज़ुक है, जिस पर उसका भरोसा है वह मकड़ी के जाले जैसा कमज़ोर है। \v 15 जब वह जाले पर टेक लगाए तो खड़ा नहीं रहता, जब उसे पकड़ ले तो क़ायम नहीं रहता। \p \v 16 बेदीन धूप में शादाब बेल की मानिंद है। उस की कोंपलें चारों तरफ़ फैल जाती, \v 17 उस की जड़ें पत्थर के ढेर पर छाकर उनमें टिक जाती हैं। \v 18 लेकिन अगर उसे उखाड़ा जाए तो जिस जगह पहले उग रही थी वह उसका इनकार करके कहेगी, ‘मैंने तुझे कभी देखा भी नहीं।’ \v 19 यह है उस की राह की नाम-निहाद ख़ुशी! जहाँ पहले था वहाँ दीगर पौदे ज़मीन से फूट निकलेंगे। \p \v 20 यक़ीनन अल्लाह बेइलज़ाम आदमी को मुस्तरद नहीं करता, यक़ीनन वह शरीर आदमी के हाथ मज़बूत नहीं करता। \v 21 वह एक बार फिर तुझे ऐसी ख़ुशी बख़्शेगा कि तू हँस उठेगा और शादमानी के नारे लगाएगा। \v 22 जो तुझसे नफ़रत करते हैं वह शर्म से मुलब्बस हो जाएंगे, और बेदीनों के ख़ैमे नेस्तो-नाबूद होंगे।” \c 9 \s1 अय्यूब का जवाब : सालिस के बग़ैर मैं रास्तबाज़ नहीं ठहर सकता \p \v 1 अय्यूब ने जवाब देकर कहा, \p \v 2 “मैं ख़ूब जानता हूँ कि तेरी बात दुरुस्त है। लेकिन अल्लाह के हुज़ूर इनसान किस तरह रास्तबाज़ ठहर सकता है? \v 3 अगर वह अदालत में अल्लाह के साथ लड़ना चाहे तो उसके हज़ार सवालात पर एक का भी जवाब नहीं दे सकेगा। \v 4 अल्लाह का दिल दानिशमंद और उस की क़ुदरत अज़ीम है। कौन कभी उससे बहस-मुबाहसा करके कामयाब रहा है? \p \v 5 अल्लाह पहाड़ों को खिसका देता है, और उन्हें पता ही नहीं चलता। वह ग़ुस्से में आकर उन्हें उलटा देता है। \v 6 वह ज़मीन को हिला देता है तो वह लरज़कर अपनी जगह से हट जाती है, उसके बुनियादी सतून काँप उठते हैं। \v 7 वह सूरज को हुक्म देता है तो तुलू नहीं होता, सितारों पर मुहर लगाता है तो उनकी चमक-दमक बंद हो जाती है। \p \v 8 अल्लाह ही आसमान को ख़ैमे की तरह तान देता, वही समुंदरी अज़दहे की पीठ को पाँवों तले कुचल देता है। \v 9 वही दुब्बे-अकबर, जौज़े, ख़ोशाए-परवीन और जुनूबी सितारों के झुरमुटों का ख़ालिक़ है। \v 10 वह इतने अज़ीम काम करता है कि कोई उनकी तह तक नहीं पहुँच सकता, इतने मोजिज़े करता है कि कोई उन्हें गिन नहीं सकता। \v 11 जब वह मेरे सामने से गुज़रे तो मैं उसे नहीं देखता, जब वह मेरे क़रीब से फिरे तो मुझे मालूम नहीं होता। \v 12 अगर वह कुछ छीन ले तो कौन उसे रोकेगा? कौन उससे कहेगा, ‘तू क्या कर रहा है?’ \v 13 अल्लाह तो अपना ग़ज़ब नाज़िल करने से बाज़ नहीं आता। उसके रोब तले रहब अज़दहे के मददगार भी दबक गए। \p \v 14 तो फिर मैं किस तरह उसे जवाब दूँ, किस तरह उससे बात करने के मुनासिब अलफ़ाज़ चुन लूँ? \v 15 अगर मैं हक़ पर होता भी तो अपना दिफ़ा न कर सकता। इस मुख़ालिफ़ से मैं इल्तिजा करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता। \v 16 अगर वह मेरी चीख़ों का जवाब देता भी तो मुझे यक़ीन न आता कि वह मेरी बात पर ध्यान देगा। \p \v 17 थोड़ी-सी ग़लती के जवाब में वह मुझे पाश पाश करता, बिलावजह मुझे बार बार ज़ख़मी करता है। \v 18 वह मुझे साँस भी नहीं लेने देता बल्कि कड़वे ज़हर से सेर कर देता है। \v 19 जहाँ ताक़त की बात है तो वही क़वी है, जहाँ इनसाफ़ की बात है तो कौन उसे पेशी के लिए बुला सकता है? \v 20 गो मैं बेगुनाह हूँ तो भी मेरा अपना मुँह मुझे क़ुसूरवार ठहराएगा, गो बेइलज़ाम हूँ तो भी वह मुझे मुजरिम क़रार देगा। \p \v 21 जो कुछ भी हो, मैं बेइलज़ाम हूँ! मैं अपनी जान की परवा ही नहीं करता, अपनी ज़िंदगी हक़ीर जानता हूँ। \v 22 ख़ैर, एक ही बात है, इसलिए मैं कहता हूँ, ‘अल्लाह बेइलज़ाम और बेदीन दोनों को ही हलाक कर देता है।’ \v 23 जब कभी अचानक कोई आफ़त इनसान को मौत के घाट उतारे तो अल्लाह बेगुनाह की परेशानी पर हँसता है। \v 24 अगर कोई मुल्क बेदीन के हवाले किया जाए तो अल्लाह उसके क़ाज़ियों की आँखें बंद कर देता है। अगर यह उस की तरफ़ से नहीं तो फिर किसकी तरफ़ से है? \p \v 25 मेरे दिन दौड़नेवाले आदमी से कहीं ज़्यादा तेज़ी से बीत गए, ख़ुशी देखे बग़ैर भाग निकले हैं। \v 26 वह सरकंडे के बहरी जहाज़ों की तरह गुज़र गए हैं, उस उक़ाब की तरह जो अपने शिकार पर झपट्टा मारता है। \v 27 अगर मैं कहूँ, ‘आओ मैं अपनी आहें भूल जाऊँ, अपने चेहरे की उदासी दूर करके ख़ुशी का इज़हार करूँ’ \v 28 तो फिर भी मैं उन तमाम तकालीफ़ से डरता हूँ जो मुझे बरदाश्त करनी हैं। क्योंकि मैं जानता हूँ कि तू मुझे बेगुनाह नहीं ठहराता। \p \v 29 जो कुछ भी हो मुझे क़ुसूरवार ही क़रार दिया गया है, चुनाँचे इसका क्या फ़ायदा कि मैं बेमानी तगो-दौ में मसरूफ़ रहूँ? \v 30 गो मैं साबुन से नहा लूँ और अपने हाथ सोडे \f + \fr 9:30 \ft लफ़्ज़ी मतलब : क़लियाब, लाई (lye)। \f* से धो लूँ \v 31 ताहम तू मुझे गढ़े की कीचड़ में यों धँसने देता है कि मुझे अपने कपड़ों से घिन आती है। \p \v 32 अल्लाह तो मुझ जैसा इनसान नहीं कि मैं जवाब में उससे कहूँ, ‘आओ हम अदालत में जाकर एक दूसरे का मुक़ाबला करें।’ \v 33 काश हमारे दरमियान सालिस हो जो हम दोनों पर हाथ रखे, \v 34 जो मेरी पीठ पर से अल्लाह का डंडा हटाए ताकि उसका ख़ौफ़ मुझे दहशतज़दा न करे। \v 35 तब मैं अल्लाह से ख़ौफ़ खाए बग़ैर बोलता, क्योंकि फ़ितरी तौर पर मैं ऐसा नहीं हूँ। \c 10 \s1 मुझे अपनी जान से घिन आती है \p \v 1 मुझे अपनी जान से घिन आती है। मैं आज़ादी से आहो-ज़ारी करूँगा, खुले तौर पर अपना दिली ग़म बयान करूँगा। \v 2 मैं अल्लाह से कहूँगा कि मुझे मुजरिम न ठहरा बल्कि बता कि तेरा मुझ पर क्या इलज़ाम है। \v 3 क्या तू ज़ुल्म करके मुझे रद्द करने में ख़ुशी महसूस करता है हालाँकि तेरे अपने ही हाथों ने मुझे बनाया? साथ साथ तू बेदीनों के मनसूबों पर अपनी मंज़ूरी का नूर चमकाता है। क्या यह तुझे अच्छा लगता है? \v 4 क्या तेरी आँखें इनसानी हैं? क्या तू सिर्फ़ इनसान की-सी नज़र से देखता है? \v 5 क्या तेरे दिन और साल फ़ानी इनसान जैसे महदूद हैं? हरगिज़ नहीं! \v 6 तो फिर क्या ज़रूरत है कि तू मेरे क़ुसूर की तलाश और मेरे गुनाह की तहक़ीक़ करता रहे? \v 7 तू तो जानता है कि मैं बेक़ुसूर हूँ और कि तेरे हाथ से कोई बचा नहीं सकता। \p \v 8 तेरे अपने हाथों ने मुझे तश्कील देकर बनाया। और अब तूने मुड़कर मुझे तबाह कर दिया है। \v 9 ज़रा इसका ख़याल रख कि तूने मुझे मिट्टी से बनाया। अब तू मुझे दुबारा ख़ाक में तबदील कर रहा है। \v 10 तूने ख़ुद मुझे दूध की तरह उंडेलकर पनीर की तरह जमने दिया। \v 11 तू ही ने मुझे जिल्द और गोश्त-पोस्त से मुलब्बस किया, हड्डियों और नसों से तैयार किया। \v 12 तू ही ने मुझे ज़िंदगी और अपनी मेहरबानी से नवाज़ा, और तेरी देख-भाल ने मेरी रूह को महफ़ूज़ रखा। \p \v 13 लेकिन एक बात तूने अपने दिल में छुपाए रखी, हाँ मुझे तेरा इरादा मालूम हो गया है। \v 14 वह यह है कि ‘अगर अय्यूब गुनाह करे तो मैं उस की पहरादारी करूँगा। मैं उसे उसके क़ुसूर से बरी नहीं करूँगा।’ \p \v 15 अगर मैं क़ुसूरवार हूँ तो मुझ पर अफ़सोस! और अगर मैं बेगुनाह भी हूँ ताहम मैं अपना सर उठाने की जुर्रत नहीं करता, क्योंकि मैं शर्म खा खाकर सेर हो गया हूँ। मुझे ख़ूब मुसीबत पिलाई गई है। \v 16 और अगर मैं खड़ा भी हो जाऊँ तो तू शेरबबर की तरह मेरा शिकार करता और मुझ पर दुबारा अपनी मोजिज़ाना क़ुदरत का इज़हार करता है। \v 17 तू मेरे ख़िलाफ़ नए गवाहों को खड़ा करता और मुझ पर अपने ग़ज़ब में इज़ाफ़ा करता है, तेरे लशकर सफ़-दर-सफ़ मुझ पर हमला करते हैं। \v 18 तू मुझे मेरी माँ के पेट से क्यों निकाल लाया? बेहतर होता कि मैं उसी वक़्त मर जाता और किसी को नज़र न आता। \v 19 यों होता जैसा मैं कभी ज़िंदा ही न था, मुझे सीधा माँ के पेट से क़ब्र में पहुँचाया जाता। \v 20 क्या मेरे दिन थोड़े नहीं हैं? मुझे तनहा छोड़! मुझसे अपना मुँह फेर ले ताकि मैं चंद एक लमहों के लिए ख़ुश हो सकूँ, \v 21 क्योंकि जल्द ही मुझे कूच करके वहाँ जाना है जहाँ से कोई वापस नहीं आता, उस मुल्क में जिसमें तारीकी और घने साये रहते हैं। \v 22 वह मुल्क अंधेरा ही अंधेरा और काला ही काला है, उसमें घने साये और बेतरतीबी है। वहाँ रौशनी भी अंधेरा ही है।” \c 11 \s1 ज़ूफ़र का जवाब : तौबा कर \p \v 1 फिर ज़ूफ़र नामाती ने जवाब देकर कहा, \p \v 2 “क्या इन तमाम बातों का जवाब नहीं देना चाहिए? क्या यह आदमी अपनी ख़ाली बातों की बिना पर ही रास्तबाज़ ठहरेगा? \v 3 क्या तेरी बेमानी बातें लोगों के मुँह यों बंद करेंगी कि तू आज़ादी से लान-तान करता जाए और कोई तुझे शरमिंदा न कर सके? \v 4 अल्लाह से तू कहता है, ‘मेरी तालीम पाक है, और तेरी नज़र में मैं पाक-साफ़ हूँ।’ \p \v 5 काश अल्लाह ख़ुद तेरे साथ हमकलाम हो, वह अपने होंटों को खोलकर तुझसे बात करे! \v 6 काश वह तेरे लिए हिकमत के भेद खोले, क्योंकि वह इनसान की समझ के नज़दीक मोजिज़े से हैं। तब तू जान लेता कि अल्लाह तेरे गुनाह का काफ़ी हिस्सा दरगुज़र कर रहा है। \p \v 7 क्या तू अल्लाह का राज़ खोल सकता है? क्या तू क़ादिरे-मुतलक़ के कामिल इल्म तक पहुँच सकता है? \v 8 वह तो आसमान से बुलंद है, चुनाँचे तू क्या कर सकता है? वह पाताल से गहरा है, चुनाँचे तू क्या जान सकता है? \v 9 उस की लंबाई ज़मीन से बड़ी और चौड़ाई समुंदर से ज़्यादा है। \p \v 10 अगर वह कहीं से गुज़रकर किसी को गिरिफ़्तार करे या अदालत में उसका हिसाब करे तो कौन उसे रोकेगा? \v 11 क्योंकि वह फ़रेबदेह आदमियों को जान लेता है, जब भी उसे बुराई नज़र आए तो वह उस पर ख़ूब ध्यान देता है। \v 12 अक़्ल से ख़ाली आदमी किस तरह समझ पा सकता है? यह उतना ही नामुमकिन है जितना यह कि जंगली गधे से इनसान पैदा हो। \p \v 13 ऐ अय्यूब, अपना दिल पूरे ध्यान से अल्लाह की तरफ़ मायल कर और अपने हाथ उस की तरफ़ उठा! \v 14 अगर तेरे हाथ गुनाह में मुलव्वस हों तो उसे दूर कर और अपने ख़ैमे में बुराई बसने न दे! \v 15 तब तू बेइलज़ाम हालत में अपना चेहरा उठा सकेगा, तू मज़बूती से खड़ा रहेगा और डरेगा नहीं। \v 16 तू अपना दुख-दर्द भूल जाएगा, और वह सिर्फ़ गुज़रे सैलाब की तरह याद रहेगा। \v 17 तेरी ज़िंदगी दोपहर की तरह चमकदार, तेरी तारीकी सुबह की मानिंद रौशन हो जाएगी। \v 18 चूँकि उम्मीद होगी इसलिए तू महफ़ूज़ होगा और सलामती से लेट जाएगा। \v 19 तू आराम करेगा, और कोई तुझे दहशतज़दा नहीं करेगा बल्कि बहुत लोग तेरी नज़रे-इनायत हासिल करने की कोशिश करेंगे। \v 20 लेकिन बेदीनों की आँखें नाकाम हो जाएँगी, और वह बच नहीं सकेंगे। उनकी उम्मीद मायूसकुन होगी।” \f + \fr 11:20 \ft या उनकी वाहिद उम्मीद इसमें होगी कि दम छोड़ें। \f* \c 12 \s1 अय्यूब का जवाब : मैं मज़ाक़ का निशाना बन गया हूँ \p \v 1 अय्यूब ने जवाब देकर कहा, \p \v 2 “लगता है कि तुम ही वाहिद दानिशमंद हो, कि हिकमत तुम्हारे साथ ही मर जाएगी। \v 3 लेकिन मुझे समझ है, इस नाते से मैं तुमसे अदना नहीं हूँ। वैसे भी कौन ऐसी बातें नहीं जानता? \v 4 मैं तो अपने दोस्तों के लिए मज़ाक़ का निशाना बन गया हूँ, मैं जिसकी दुआएँ अल्लाह सुनता था। हाँ, मैं जो बेगुनाह और बेइलज़ाम हूँ दूसरों के लिए मज़ाक़ का निशाना बन गया हूँ! \v 5 जो सुकून से ज़िंदगी गुज़ारता है वह मुसीबतज़दा को हक़ीर जानता है। वह कहता है, ‘आओ, हम उसे ठोकर मारें जिसके पाँव डगमगाने लगे हैं।’ \v 6 ग़ारतगरों के ख़ैमों में आरामो-सुकून है, और अल्लाह को तैश दिलानेवाले हिफ़ाज़त से रहते हैं, गो वह अल्लाह के हाथ में हैं। \p \v 7 ताहम तुम कहते हो कि जानवरों से पूछ ले तो वह तुझे सहीह बात सिखाएँगे। परिंदों से पता कर तो वह तुझे दुरुस्त जवाब देंगे। \v 8 ज़मीन से बात कर तो वह तुझे तालीम देगी, बल्कि समुंदर की मछलियाँ भी तुझे इसका मफ़हूम सुनाएँगी। \v 9 इनमें से एक भी नहीं जो न जानता हो कि रब के हाथ ने यह सब कुछ किया है। \v 10 उसी के हाथ में हर जानदार की जान, तमाम इनसानों का दम है। \v 11 कान तो अलफ़ाज़ की यों जाँच-पड़ताल करता है जिस तरह ज़बान खानों में इम्तियाज़ करती है। \v 12 और हिकमत उनमें पाई जाती है जो उम्ररसीदा हैं, समझ मुतअद्दिद दिन गुज़रने के बाद ही आती है। \p \v 13 हिकमत और क़ुदरत अल्लाह की है, वही मसलहत और समझ का मालिक है। \v 14 जो कुछ वह ढा दे वह दुबारा तामीर नहीं होगा, जिसे वह गिरिफ़्तार करे उसे आज़ाद नहीं किया जाएगा। \v 15 जब वह पानी रोके तो काल पड़ता है, जब उसे खुला छोड़े तो वह मुल्क में तबाही मचा देता है। \p \v 16 उसके पास क़ुव्वत और दानाई है। भटकने और भटकानेवाला दोनों ही उसके हाथ में हैं। \v 17 मुशीरों को वह नंगे पाँव अपने साथ ले जाता है, क़ाज़ियों को अहमक़ साबित करता है। \v 18 वह बादशाहों का पटका खोलकर उनकी कमरों में रस्सा बाँधता है। \v 19 इमामों को वह नंगे पाँव अपने साथ ले जाता है, मज़बूती से खड़े आदमियों को तबाह करता है। \v 20 क़ाबिले-एतमाद अफ़राद से वह बोलने की क़ाबिलियत और बुज़ुर्गों से इम्तियाज़ करने की लियाक़त छीन लेता है। \v 21 वह शुरफ़ा पर अपनी हिक़ारत का इज़हार करके ज़ोरावरों का पटका खोल देता है। \p \v 22 वह अंधेरे के पोशीदा भेद खोल देता और गहरी तारीकी को रौशनी में लाता है। \v 23 वह क़ौमों को बड़ा भी बनाता और तबाह भी करता है, उम्मतों को मुंतशिर भी करता और उनकी क़ियादत भी करता है। \v 24 वह मुल्क के राहनुमाओं को अक़्ल से महरूम करके उन्हें ऐसे बयाबान में आवारा फिरने देता है जहाँ रास्ता ही नहीं। \v 25 तब वह अंधेरे में रौशनी के बग़ैर टटोल टटोलकर घूमते हैं। अल्लाह ही उन्हें नशे में धुत शराबियों की तरह भटकने देता है। \c 13 \p \v 1 यह सब कुछ मैंने अपनी आँखों से देखा, अपने कानों से सुनकर समझ लिया है। \v 2 इल्म के लिहाज़ से मैं तुम्हारे बराबर हूँ। इस नाते से मैं तुमसे कम नहीं हूँ। \v 3 लेकिन मैं क़ादिरे-मुतलक़ से ही बात करना चाहता हूँ, अल्लाह के साथ ही मुबाहसा करने की आरज़ू रखता हूँ। \p \v 4 जहाँ तक तुम्हारा ताल्लुक़ है, तुम सब फ़रेबदेह लेप लगानेवाले और बेकार डाक्टर हो। \v 5 काश तुम सरासर ख़ामोश रहते! ऐसा करने से तुम्हारी हिकमत कहीं ज़्यादा ज़ाहिर होती। \v 6 मुबाहसे में ज़रा मेरा मौक़िफ़ सुनो, अदालत में मेरे बयानात पर ग़ौर करो! \p \v 7 क्या तुम अल्लाह की ख़ातिर कजरौ बातें पेश करते हो, क्या उसी की ख़ातिर झूट बोलते हो? \v 8 क्या तुम उस की जानिबदारी करना चाहते हो, अल्लाह के हक़ में लड़ना चाहते हो? \v 9 सोच लो, अगर वह तुम्हारी जाँच करे तो क्या तुम्हारी बात बनेगी? क्या तुम उसे यों धोका दे सकते हो जिस तरह इनसान को धोका दिया जाता है? \p \v 10 अगर तुम ख़ुफ़िया तौर पर भी जानिबदारी दिखाओ तो वह तुम्हें ज़रूर सख़्त सज़ा देगा। \v 11 क्या उसका रोब तुम्हें ख़ौफ़ज़दा नहीं करेगा? क्या तुम उससे सख़्त दहशत नहीं खाओगे? \v 12 फिर जिन कहावतों की याद तुम दिलाते रहते हो वह राख की अमसाल साबित होंगी, पता चलेगा कि तुम्हारी बातें मिट्टी के अलफ़ाज़ हैं। \p \v 13 ख़ामोश होकर मुझसे बाज़ आओ! जो कुछ भी मेरे साथ हो जाए, मैं बात करना चाहता हूँ। \v 14 मैं अपने आपको ख़तरे में डालने के लिए तैयार हूँ, मैं अपनी जान पर खेलूँगा। \v 15 शायद वह मुझे मार डाले। कोई बात नहीं, क्योंकि मेरी उम्मीद जाती रही है। जो कुछ भी हो में उसी के सामने अपनी राहों का दिफ़ा करूँगा। \v 16 और इसमें मैं पनाह लेता हूँ कि बेदीन उसके हुज़ूर आने की जुर्रत नहीं करता। \p \v 17 ध्यान से मेरे अलफ़ाज़ सुनो, अपने कान मेरे बयानात पर धरो। \v 18 तुम्हें पता चलेगा कि मैंने एहतियात और तरतीब से अपना मामला तैयार किया है। मुझे साफ़ मालूम है कि मैं हक़ पर हूँ! \v 19 अगर कोई मुझे मुजरिम साबित कर सके तो मैं चुप हो जाऊँगा, दम छोड़ने तक ख़ामोश रहूँगा। \s1 अय्यूब की मायूसी में दुआ \p \v 20 ऐ अल्लाह, मेरी सिर्फ़ दो दरख़ास्तें मंज़ूर कर ताकि मुझे तुझसे छुप जाने की ज़रूरत न हो। \v 21 पहले, अपना हाथ मुझसे दूर कर ताकि तेरा ख़ौफ़ मुझे दहशतज़दा न करे। \v 22 दूसरे, इसके बाद मुझे बुला ताकि मैं जवाब दूँ, या मुझे पहले बोलने दे और तू ही इसका जवाब दे। \p \v 23 मुझसे कितने गुनाह और ग़लतियाँ हुई हैं? मुझ पर मेरा जुर्म और मेरा गुनाह ज़ाहिर कर! \v 24 तू अपना चेहरा मुझसे छुपाए क्यों रखता है? तू मुझे क्यों अपना दुश्मन समझता है? \v 25 क्या तू हवा के झोंकों के उड़ाए हुए पत्ते को दहशत खिलाना चाहता, ख़ुश्क भूसे का ताक़्क़ुब करना चाहता है? \p \v 26 यह तेरा ही फ़ैसला है कि मैं तलख़ तजरबों से गुज़रूँ, तेरी ही मरज़ी है कि मैं अपनी जवानी के गुनाहों की सज़ा पाऊँ। \f + \fr 13:26 \ft लफ़्ज़ी तरजुमा : मीरास में पाऊँ। \f* \v 27 तू मेरे पाँवों को काठ में ठोंककर मेरी तमाम राहों की पहरादारी करता है। तू मेरे हर एक नक़्शे-क़दम पर ध्यान देता है, \v 28 गो मैं मै की घिसी-फटी मशक और कीड़ों का ख़राब किया हुआ लिबास हूँ। \c 14 \p \v 1 औरत से पैदा हुआ इनसान चंद एक दिन ज़िंदा रहता है, और उस की ज़िंदगी बेचैनी से भरी रहती है। \v 2 फूल की तरह वह चंद लमहों के लिए फूट निकलता, फिर मुरझा जाता है। साये की तरह वह थोड़ी देर के बाद ओझल हो जाता और क़ायम नहीं रहता। \v 3 क्या तू वाक़ई एक ऐसी मख़लूक़ का इतने ग़ौर से मुआयना करना चाहता है? मैं कौन हूँ कि तू मुझे पेशी के लिए अपने हुज़ूर लाए? \p \v 4 कौन नापाक चीज़ को पाक-साफ़ कर सकता है? कोई नहीं! \v 5 इनसान की उम्र तो मुक़र्रर हुई है, उसके महीनों की तादाद तुझे मालूम है, क्योंकि तू ही ने उसके दिनों की वह हद बाँधी है जिससे आगे वह बढ़ नहीं सकता। \v 6 चुनाँचे अपनी निगाह उससे फेर ले और उसे छोड़ दे ताकि वह मज़दूर की तरह अपने थोड़े दिनों से कुछ मज़ा ले सके। \p \v 7 अगर दरख़्त को काटा जाए तो उसे थोड़ी-बहुत उम्मीद बाक़ी रहती है, क्योंकि ऐन मुमकिन है कि मुढ से कोंपलें फूट निकलें और उस की नई शाख़ें उगती जाएँ। \v 8 बेशक उस की जड़ें पुरानी हो जाएँ और उसका मुढ मिट्टी में ख़त्म होने लगे, \v 9 लेकिन पानी की ख़ुशबू सूँघते ही वह कोंपलें निकालने लगेगा, और पनीरी की-सी टहनियाँ उससे फूटने लगेंगी। \p \v 10 लेकिन इनसान फ़रक़ है। मरते वक़्त उस की हर तरह की ताक़त जाती रहती है, दम छोड़ते वक़्त उसका नामो-निशान तक नहीं रहता। \v 11 वह उस झील की मानिंद है जिसका पानी ओझल हो जाए, उस नदी की मानिंद जो सुकड़कर ख़ुश्क हो जाए। \v 12 वफ़ात पानेवाले का यही हाल है। वह लेट जाता और कभी नहीं उठेगा। जब तक आसमान क़ायम है न वह जाग उठेगा, न उसे जगाया जाएगा। \p \v 13 काश तू मुझे पाताल में छुपा देता, मुझे वहाँ उस वक़्त तक पोशीदा रखता जब तक तेरा क़हर ठंडा न हो जाता! काश तू एक वक़्त मुक़र्रर करे जब तू मेरा दुबारा ख़याल करेगा। \v 14 (क्योंकि अगर इनसान मर जाए तो क्या वह दुबारा ज़िंदा हो जाएगा?) फिर मैं अपनी सख़्त ख़िदमत के तमाम दिन बरदाश्त करता, उस वक़्त तक इंतज़ार करता जब तक मेरी सबुकदोशी न हो जाती। \v 15 तब तू मुझे आवाज़ देता और मैं जवाब देता, तू अपने हाथों के काम का आरज़ूमंद होता। \v 16 उस वक़्त भी तू मेरे हर क़दम का शुमार करता, लेकिन न सिर्फ़ इस मक़सद से कि मेरे गुनाहों पर ध्यान दे। \v 17 तू मेरे जरायम थैले में बाँधकर उस पर मुहर लगा देता, मेरी हर ग़लती को ढाँक देता। \p \v 18 लेकिन अफ़सोस! जिस तरह पहाड़ गिरकर चूर चूर हो जाता और चट्टान खिसक जाती है, \v 19 जिस तरह बहता पानी पत्थर को रगड़ रगड़कर ख़त्म करता और सैलाब मिट्टी को बहा ले जाता है उसी तरह तू इनसान की उम्मीद ख़ाक में मिला देता है। \v 20 तू मुकम्मल तौर पर उस पर ग़ालिब आ जाता तो वह कूच कर जाता है, तू उसका चेहरा बिगाड़कर उसे फ़ारिग़ कर देता है। \v 21 अगर उसके बच्चों को सरफ़राज़ किया जाए तो उसे पता नहीं चलता, अगर उन्हें पस्त किया जाए तो यह भी उसके इल्म में नहीं आता। \v 22 वह सिर्फ़ अपने ही जिस्म का दर्द महसूस करता और अपने लिए ही मातम करता है।” \c 15 \s1 इलीफ़ज़ का जवाब : अय्यूब कुफ़र बक रहा है \p \v 1 तब इलीफ़ज़ तेमानी ने जवाब देकर कहा, \p \v 2 “क्या दानिशमंद को जवाब में बेहूदा ख़यालात पेश करने चाहिएँ? क्या उसे अपना पेट तपती मशरिक़ी हवा से भरना चाहिए? \v 3 क्या मुनासिब है कि वह फ़ज़ूल बहस-मुबाहसा करे, ऐसी बातें करे जो बेफ़ायदा हैं? हरगिज़ नहीं! \p \v 4 लेकिन तेरा रवैया इससे कहीं बुरा है। तू अल्लाह का ख़ौफ़ छोड़कर उसके हुज़ूर ग़ौरो-ख़ौज़ करने का फ़र्ज़ हक़ीर जानता है। \v 5 तेरा क़ुसूर ही तेरे मुँह को ऐसी बातें करने की तहरीक दे रहा है, इसी लिए तूने चालाकों की ज़बान अपना ली है। \v 6 मुझे तुझे क़ुसूरवार ठहराने की ज़रूरत ही नहीं, क्योंकि तेरा अपना ही मुँह तुझे मुजरिम ठहराता है, तेरे अपने ही होंट तेरे ख़िलाफ़ गवाही देते हैं। \p \v 7 क्या तू सबसे पहले पैदा हुआ इनसान है? क्या तूने पहाड़ों से पहले ही जन्म लिया? \v 8 जब अल्लाह की मजलिस मुनअक़िद हो जाए तो क्या तू भी उनकी बातें सुनता है? क्या सिर्फ़ तुझे ही हिकमत हासिल है? \v 9 तू क्या जानता है जो हम नहीं जानते? तुझे किस बात की समझ आई है जिसका इल्म हम नहीं रखते? \v 10 हमारे दरमियान भी उम्ररसीदा बुज़ुर्ग हैं, ऐसे आदमी जो तेरे वालिद से भी बूढ़े हैं। \p \v 11 ऐ अय्यूब, क्या तेरी नज़र में अल्लाह की तसल्ली देनेवाली बातों की कोई अहमियत नहीं? क्या तू इसकी क़दर नहीं कर सकता कि नरमी से तुझसे बात की जा रही है? \v 12 तेरे दिल के जज़बात तुझे यों उड़ाकर क्यों ले जाएँ, तेरी आँखें क्यों इतनी चमक उठें \v 13 कि आख़िरकार तू अपना ग़ुस्सा अल्लाह पर उतारकर ऐसी बातें अपने मुँह से उगल दे? \p \v 14 भला इनसान क्या है कि पाक-साफ़ ठहरे? औरत से पैदा हुई मख़लूक़ क्या है कि रास्तबाज़ साबित हो? कुछ भी नहीं! \v 15 अल्लाह तो अपने मुक़द्दस ख़ादिमों पर भी भरोसा नहीं रखता, बल्कि आसमान भी उस की नज़र में पाक नहीं है। \v 16 तो फिर वह इनसान पर भरोसा क्यों रखे जो क़ाबिले-घिन और बिगड़ा हुआ है, जो बुराई को पानी की तरह पी लेता है। \p \v 17 मेरी बात सुन, मैं तुझे कुछ सुनाना चाहता हूँ। मैं तुझे वह कुछ बयान करूँगा जो मुझ पर ज़ाहिर हुआ है, \v 18 वह कुछ जो दानिशमंदों ने पेश किया और जो उन्हें अपने बापदादा से मिला था। उनसे कुछ छुपाया नहीं गया था। \v 19 (बापदादा से मुराद वह वाहिद लोग हैं जिन्हें उस वक़्त मुल्क दिया गया जब कोई भी परदेसी उनमें नहीं फिरता था)। \p \v 20 वह कहते थे, बेदीन अपने तमाम दिन डर के मारे तड़पता रहता, और जितने भी साल ज़ालिम के लिए महफ़ूज़ रखे गए हैं उतने ही साल वह पेचो-ताब खाता रहता है। \v 21 दहशतनाक आवाज़ें उसके कानों में गूँजती रहती हैं, और अमनो-अमान के वक़्त ही तबाही मचानेवाला उस पर टूट पड़ता है। \v 22 उसे अंधेरे से बचने की उम्मीद ही नहीं, क्योंकि उसे तलवार के लिए तैयार रखा गया है। \p \v 23 वह मारा मारा फिरता है, आख़िरकार वह गिद्धों की ख़ोराक बनेगा। उसे ख़ुद इल्म है कि तारीकी का दिन क़रीब ही है। \v 24 तंगी और मुसीबत उसे दहशत खिलाती, हमलाआवर बादशाह की तरह उस पर ग़ालिब आती हैं। \v 25 और वजह क्या है? यह कि उसने अपना हाथ अल्लाह के ख़िलाफ़ उठाया, क़ादिरे-मुतलक़ के सामने तकब्बुर दिखाया है। \v 26 अपनी मोटी और मज़बूत ढाल की पनाह में अकड़कर वह तेज़ी से अल्लाह पर हमला करता है। \p \v 27 गो इस वक़्त उसका चेहरा चरबी से चमकता और उस की कमर मोटी है, \v 28 लेकिन आइंदा वह तबाहशुदा शहरों में बसेगा, ऐसे मकानों में जो सबके छोड़े हुए हैं और जो जल्द ही पत्थर के ढेर बन जाएंगे। \v 29 वह अमीर नहीं होगा, उस की दौलत क़ायम नहीं रहेगी, उस की जायदाद मुल्क में फैली नहीं रहेगी। \p \v 30 वह तारीकी से नहीं बचेगा। शोला उस की कोंपलों को मुरझाने देगा, और अल्लाह उसे अपने मुँह की एक फूँक से उड़ाकर तबाह कर देगा। \v 31 वह धोके पर भरोसा न करे, वरना वह भटक जाएगा और उसका अज्र धोका ही होगा। \v 32 वक़्त से पहले ही उसे इसका पूरा मुआवज़ा मिलेगा, उस की कोंपल कभी नहीं फले-फूलेगी। \p \v 33 वह अंगूर की उस बेल की मानिंद होगा जिसका फल कच्ची हालत में ही गिर जाए, ज़ैतून के उस दरख़्त की मानिंद जिसके तमाम फूल झड़ जाएँ। \v 34 क्योंकि बेदीनों का जत्था बंजर रहेगा, और आग रिश्वतख़ोरों के ख़ैमों को भस्म करेगी। \v 35 उनके पाँव दुख-दर्द से भारी हो जाते, और वह बुराई को जन्म देते हैं। उनका पेट धोका ही पैदा करता है।” \c 16 \s1 अय्यूब का जवाब : मैं बेगुनाह हूँ \p \v 1 अय्यूब ने जवाब देकर कहा, \p \v 2 “इस तरह की मैंने बहुत-सी बातें सुनी हैं, तुम्हारी तसल्ली सिर्फ़ दुख-दर्द का बाइस है। \v 3 क्या तुम्हारी लफ़्फ़ाज़ी कभी ख़त्म नहीं होगी? तुझे क्या चीज़ बेचैन कर रही है कि तू मुझे जवाब देने पर मजबूर है? \v 4 अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो मैं भी तुम्हारी जैसी बातें कर सकता। फिर मैं भी तुम्हारे ख़िलाफ़ पुरअलफ़ाज़ तक़रीरें पेश करके तौबा तौबा कह सकता। \v 5 लेकिन मैं ऐसा न करता। मैं तुम्हें अपनी बातों से तक़वियत देता, अफ़सोस के इज़हार से तुम्हें तसकीन देता। \v 6 लेकिन मेरे साथ ऐसा सुलूक नहीं हो रहा। अगर मैं बोलूँ तो मुझे सुकून नहीं मिलता, अगर चुप रहूँ तो मेरा दर्द दूर नहीं होता। \p \v 7 लेकिन अब अल्लाह ने मुझे थका दिया है, उसने मेरे पूरे घराने को तबाह कर दिया है। \v 8 उसने मुझे सुकड़ने दिया है, और यह बात मेरे ख़िलाफ़ गवाह बन गई है। मेरी दुबली-पतली हालत खड़ी होकर मेरे ख़िलाफ़ गवाही देती है। \v 9 अल्लाह का ग़ज़ब मुझे फाड़ रहा है, वह मेरा दुश्मन और मेरा मुख़ालिफ़ बन गया है जो मेरे ख़िलाफ़ दाँत पीस पीसकर मुझे अपनी आँखों से छेद रहा है। \f + \fr 16:9 \ft लफ़्ज़ी तरजुमा : अपनी आँखें मेरे ख़िलाफ़ तेज़ करता है। \f* \v 10 लोग गला फाड़कर मेरा मज़ाक़ उड़ाते, मेरे गाल पर थप्पड़ मारकर मेरी बेइज़्ज़ती करते हैं। सबके सब मेरे ख़िलाफ़ मुत्तहिद हो गए हैं। \v 11 अल्लाह ने मुझे शरीरों के हवाले कर दिया, मुझे बेदीनों के चंगुल में फँसा दिया है। \v 12 मैं सुकून से ज़िंदगी गुज़ार रहा था कि उसने मुझे पाश पाश कर दिया, मुझे गले से पकड़कर ज़मीन पर पटख़ दिया। उसने मुझे अपना निशाना बना लिया, \v 13 फिर उसके तीरअंदाज़ों ने मुझे घेर लिया। उसने बेरहमी से मेरे गुरदों को चीर डाला, मेरा पित ज़मीन पर उंडेल दिया। \v 14 बार बार वह मेरी क़िलाबंदी में रख़ना डालता रहा, पहलवान की तरह मुझ पर हमला करता रहा। \p \v 15 मैंने टाँके लगाकर अपनी जिल्द के साथ टाट का लिबास जोड़ लिया है, अपनी शानो-शौकत ख़ाक में मिलाई है। \v 16 रो रोकर मेरा चेहरा सूज गया है, मेरी पलकों पर घना अंधेरा छा गया है। \v 17 लेकिन वजह क्या है? मेरे हाथ तो ज़ुल्म से बरी रहे, मेरी दुआ पाक-साफ़ रही है। \p \v 18 ऐ ज़मीन, मेरे ख़ून को मत ढाँपना! मेरी आहो-ज़ारी कभी आराम की जगह न पाए बल्कि गूँजती रहे। \v 19 अब भी मेरा गवाह आसमान पर है, मेरे हक़ में गवाही देनेवाला बुलंदियों पर है। \v 20 मेरी आहो-ज़ारी मेरा तरजुमान है, मैं बेख़ाबी से अल्लाह के इंतज़ार में रहता हूँ। \v 21 मेरी आहें अल्लाह के सामने फ़ानी इनसान के हक़ में बात करेंगी, उस तरह जिस तरह कोई अपने दोस्त के हक़ में बात करे। \v 22 क्योंकि थोड़े ही सालों के बाद मैं उस रास्ते पर रवाना हो जाऊँगा जिससे वापस नहीं आऊँगा। \c 17 \s1 अल्लाह से इल्तिजा \p \v 1 मेरी रूह शिकस्ता हो गई, मेरे दिन बुझ गए हैं। क़ब्रिस्तान ही मेरे इंतज़ार में है। \v 2 मेरे चारों तरफ़ मज़ाक़ ही मज़ाक़ सुनाई देता, मेरी आँखें लोगों का हटधर्म रवैया देखते देखते थक गई हैं। \v 3 ऐ अल्लाह, मेरी ज़मानत मेरे अपने हाथों से क़बूल फ़रमा, क्योंकि और कोई नहीं जो उसे दे। \v 4 उनके ज़हनों को तूने बंद कर दिया, इसलिए तो उनसे इज़्ज़त नहीं पाएगा। \v 5 वह उस आदमी की मानिंद हैं जो अपने दोस्तों को ज़ियाफ़त की दावत दे, हालाँकि उसके अपने बच्चे भूके मर रहे हों। \p \v 6 अल्लाह ने मुझे मज़ाक़ का यों निशाना बनाया है कि मैं क़ौमों में इबरतअंगेज़ मिसाल बन गया हूँ। मुझे देखते ही लोग मेरे मुँह पर थूकते हैं। \v 7 मेरी आँखें ग़म खा खाकर धुँधला गई हैं, मेरे आज़ा यहाँ तक सूख गए कि साया ही रह गया है। \v 8 यह देखकर सीधी राह पर चलनेवालों के रोंगटे खड़े हो जाते और बेगुनाह बेदीनों के ख़िलाफ़ मुश्तइल हो जाते हैं। \v 9 रास्तबाज़ अपनी राह पर क़ायम रहते, और जिनके हाथ पाक हैं वह तक़वियत पाते हैं। \v 10 लेकिन जहाँ तक तुम सबका ताल्लुक़ है, आओ दुबारा मुझ पर हमला करो! मुझे तुममें एक भी दाना आदमी नहीं मिलेगा। \p \v 11 मेरे दिन गुज़र गए हैं। मेरे वह मनसूबे और दिल की आरज़ुएँ ख़ाक में मिल गई हैं \v 12 जिनसे रात दिन में बदल गई और रौशनी अंधेरे को दूर करके क़रीब आई थी। \v 13 अगर मैं सिर्फ़ इतनी ही उम्मीद रखूँ कि पाताल मेरा घर होगा तो यह कैसी उम्मीद होगी? अगर मैं अपना बिस्तर तारीकी में बिछाकर \v 14 क़ब्र से कहूँ, ‘तू मेरा बाप है’ और कीड़े से, ‘ऐ मेरी अम्मी, ऐ मेरी बहन’ \v 15 तो फिर यह कैसी उम्मीद होगी? कौन कहेगा, ‘मुझे तेरे लिए उम्मीद नज़र आती है’? \v 16 तब मेरी उम्मीद मेरे साथ पाताल में उतरेगी, और हम मिलकर ख़ाक में धँस जाएंगे।” \c 18 \s1 बिलदद : अल्लाह बेदीनों को सज़ा देता है \p \v 1 बिलदद सूख़ी ने जवाब देकर कहा, \p \v 2 “तू कब तक ऐसी बातें करेगा? इनसे बाज़ आकर होश में आ! तब ही हम सहीह बात कर सकेंगे। \v 3 तू हमें डंगर जैसे अहमक़ क्यों समझता है? \v 4 गो तू आग-बगूला होकर अपने आपको फाड़ रहा है, लेकिन क्या तेरे बाइस ज़मीन को वीरान होना चाहिए और चट्टानों को अपनी जगह से खिसक्ना चाहिए? हरगिज़ नहीं! \p \v 5 यक़ीनन बेदीन का चराग़ बुझ जाएगा, उस की आग का शोला आइंदा नहीं चमकेगा। \v 6 उसके ख़ैमे में रौशनी अंधेरा हो जाएगी, उसके ऊपर की शमा बुझ जाएगी। \v 7 उसके लंबे क़दम रुक रुककर आगे बढ़ेंगे, और उसका अपना मनसूबा उसे पटख़ देगा। \p \v 8 उसके अपने पाँव उसे जाल में फँसा देते हैं, वह दाम पर ही चलता-फिरता है। \v 9 फंदा उस की एड़ी पकड़ लेता, कमंद उसे जकड़ लेती है। \v 10 उसे फँसाने का रस्सा ज़मीन में छुपा हुआ है, रास्ते में फंदा बिछा है। \p \v 11 वह ऐसी चीज़ों से घिरा रहता है जो उसे क़दम बक़दम दहशत खिलाती और उस की नाक में दम करती हैं। \v 12 आफ़त उसे हड़प कर लेना चाहती है, तबाही तैयार खड़ी है ताकि उसे गिरते वक़्त ही पकड़ ले। \v 13 बीमारी उस की जिल्द को खा जाती, मौत का पहलौठा उसके आज़ा को निगल लेता है। \v 14 उसे उसके ख़ैमे की हिफ़ाज़त से छीन लिया जाता और घसीटकर दहशतों के बादशाह के सामने लाया जाता है। \p \v 15 उसके ख़ैमे में आग बसती, उसके घर पर गंधक बिखर जाती है। \v 16 नीचे उस की जड़ें सूख जाती, ऊपर उस की शाख़ें मुरझा जाती हैं। \v 17 ज़मीन पर से उस की याद मिट जाती है, कहीं भी उसका नामो-निशान नहीं रहता। \p \v 18 उसे रौशनी से तारीकी में धकेला जाता, दुनिया से भगाकर ख़ारिज किया जाता है। \v 19 क़ौम में उस की न औलाद न नसल रहेगी, जहाँ पहले रहता था वहाँ कोई नहीं बचेगा। \v 20 उसका अंजाम देखकर मग़रिब के बाशिंदों के रोंगटे खड़े हो जाते और मशरिक़ के बाशिंदे दहशतज़दा हो जाते हैं। \v 21 यही है बेदीन के घर का अंजाम, उसी के मक़ाम का जो अल्लाह को नहीं जानता।” \c 19 \s1 अय्यूब : मैं जानता हूँ कि मेरा नजातदहिंदा ज़िंदा है \p \v 1 तब अय्यूब ने जवाब में कहा, \p \v 2 “तुम कब तक मुझ पर तशद्दुद करना चाहते हो, कब तक मुझे अलफ़ाज़ से टुकड़े टुकड़े करना चाहते हो? \v 3 अब तुमने दस बार मुझे मलामत की है, तुमने शर्म किए बग़ैर मेरे साथ बदसुलूकी की है। \v 4 अगर यह बात सहीह भी हो कि मैं ग़लत राह पर आ गया हूँ तो मुझे ही इसका नतीजा भुगतना है। \v 5 लेकिन चूँकि तुम मुझ पर अपनी सबक़त दिखाना चाहते और मेरी रुसवाई मुझे डाँटने के लिए इस्तेमाल कर रहे हो \v 6 तो फिर जान लो, अल्लाह ने ख़ुद मुझे ग़लत राह पर लाकर अपने दाम से घेर लिया है। \p \v 7 गो मैं चीख़कर कहूँ, ‘मुझ पर ज़ुल्म हो रहा है,’ लेकिन जवाब कोई नहीं मिलता। गो मैं मदद के लिए पुकारूँ, लेकिन इनसाफ़ नहीं पाता। \v 8 उसने मेरे रास्ते में ऐसी दीवार खड़ी कर दी कि मैं गुज़र नहीं सकता, उसने मेरी राहों पर अंधेरा ही छा जाने दिया है। \v 9 उसने मेरी इज़्ज़त मुझसे छीनकर मेरे सर से ताज उतार दिया है। \v 10 चारों तरफ़ से उसने मुझे ढा दिया तो मैं तबाह हुआ। उसने मेरी उम्मीद को दरख़्त की तरह जड़ से उखाड़ दिया है। \v 11 उसका क़हर मेरे ख़िलाफ़ भड़क उठा है, और वह मुझे अपने दुश्मनों में शुमार करता है। \v 12 उसके दस्ते मिलकर मुझ पर हमला करने आए हैं। उन्होंने मेरी फ़सील के साथ मिट्टी का ढेर लगाया है ताकि उसमें रख़ना डालें। उन्होंने चारों तरफ़ से मेरे ख़ैमे का मुहासरा किया है। \p \v 13 मेरे भाइयों को उसने मुझसे दूर कर दिया, और मेरे जाननेवालों ने मेरा हुक़्क़ा-पानी बंद कर दिया है। \v 14 मेरे रिश्तेदारों ने मुझे तर्क कर दिया, मेरे क़रीबी दोस्त मुझे भूल गए हैं। \v 15 मेरे दामनगीर और नौकरानियाँ मुझे अजनबी समझते हैं। उनकी नज़र में मैं अजनबी हूँ। \v 16 मैं अपने नौकर को बुलाता हूँ तो वह जवाब नहीं देता। गो मैं अपने मुँह से उससे इल्तिजा करूँ तो भी वह नहीं आता। \p \v 17 मेरी बीवी मेरी जान से घिन खाती है, मेरे सगे भाई मुझे मकरूह समझते हैं। \v 18 यहाँ तक कि छोटे बच्चे भी मुझे हक़ीर जानते हैं। अगर मैं उठने की कोशिश करूँ तो वह अपना मुँह दूसरी तरफ़ फेर लेते हैं। \v 19 मेरे दिली दोस्त मुझे कराहियत की निगाह से देखते हैं, जो मुझे प्यारे थे वह मेरे मुख़ालिफ़ हो गए हैं। \v 20 मेरी जिल्द सुकड़कर मेरी हड्डियों के साथ जा लगी है। मैं मौत से बाल बाल बच गया हूँ। \f + \fr 19:20 \ft लफ़्ज़ी तरजुमा : ‘मेरे दाँतों की जिल्द ही बच गई है।’ मतलब मुबहम-सा है। \f* \p \v 21 मेरे दोस्तो, मुझ पर तरस खाओ, मुझ पर तरस खाओ। क्योंकि अल्लाह ही के हाथ ने मुझे मारा है। \v 22 तुम क्यों अल्लाह की तरह मेरे पीछे पड़ गए हो, क्यों मेरा गोश्त खा खाकर सेर नहीं होते? \p \v 23 काश मेरी बातें क़लमबंद हो जाएँ! काश वह यादगार पर कंदा की जाएँ, \v 24 लोहे की छैनी और सीसे से हमेशा के लिए पत्थर में नक़्श की जाएँ! \v 25 लेकिन मैं जानता हूँ कि मेरा छुड़ानेवाला ज़िंदा है और आख़िरकार मेरे हक़ में ज़मीन पर खड़ा हो जाएगा, \v 26 गो मेरी जिल्द यों उतारी भी गई हो। लेकिन मेरी आरज़ू है कि जिस्म में होते हुए अल्लाह को देखूँ, \v 27 कि मैं ख़ुद ही उसे देखूँ, न कि अजनबी बल्कि अपनी ही आँखों से उस पर निगाह करूँ। इस आरज़ू की शिद्दत से मेरा दिल तबाह हो रहा है। \p \v 28 तुम कहते हो, ‘हम कितनी सख़्ती से अय्यूब का ताक़्क़ुब करेंगे’ और ‘मसले की जड़ तो उसी में पिनहाँ है।’ \v 29 लेकिन तुम्हें ख़ुद तलवार से डरना चाहिए, क्योंकि तुम्हारा ग़ुस्सा तलवार की सज़ा के लायक़ है, तुम्हें जानना चाहिए कि अदालत आनेवाली है।” \c 20 \s1 ज़ूफ़र : ग़लत काम की मुंसिफ़ाना सज़ा दी जाएगी \p \v 1 तब ज़ूफ़र नामाती ने जवाब देकर कहा, \p \v 2 “यक़ीनन मेरे मुज़तरिब ख़यालात और वह एहसासात जो मेरे अंदर से उभर रहे हैं मुझे जवाब देने पर मजबूर कर रहे हैं। \v 3 मुझे ऐसी नसीहत सुननी पड़ी जो मेरी बेइज़्ज़ती का बाइस थी, लेकिन मेरी समझ मुझे जवाब देने की तहरीक दे रही है। \p \v 4 क्या तुझे मालूम नहीं कि क़दीम ज़माने से यानी जब से इनसान को ज़मीन पर रखा गया \v 5 शरीर का फ़तहमंद नारा आरिज़ी और बेदीन की ख़ुशी पल-भर की साबित हुई है? \v 6 गो उसका क़दो-क़ामत आसमान तक पहुँचे और उसका सर बादलों को छुए \v 7 ताहम वह अपने फ़ुज़्ले की तरह अबद तक तबाह हो जाएगा। जिन्होंने उसे पहले देखा था वह पूछेंगे, ‘अब वह कहाँ है?’ \p \v 8 वह ख़ाब की तरह उड़ जाता और आइंदा कहीं नहीं पाया जाएगा, उसे रात की रोया की तरह भुला दिया जाता है। \v 9 जिस आँख ने उसे देखा वह उसे आइंदा कभी नहीं देखेगी। उसका घर दुबारा उसका मुशाहदा नहीं करेगा। \v 10 उस की औलाद को ग़रीबों से भीक माँगनी पड़ेगी, उसके अपने हाथों को दौलत वापस देनी पड़ेगी। \v 11 जवानी की जिस ताक़त से उस की हड्डियाँ भरी हैं वह उसके साथ ही ख़ाक में मिल जाएगी। \p \v 12 बुराई बेदीन के मुँह में मीठी है। वह उसे अपनी ज़बान तले छुपाए रखता, \v 13 उसे महफ़ूज़ रखकर जाने नहीं देता। \v 14 लेकिन उस की ख़ुराक पेट में आकर ख़राब हो जाती बल्कि साँप का ज़हर बन जाती है। \v 15 जो दौलत उसने निगल ली उसे वह उगल देगा, अल्लाह ही यह चीज़ें उसके पेट से ख़ारिज करेगा। \v 16 उसने साँप का ज़हर चूस लिया, और साँप ही की ज़बान उसे मार डालेगी। \v 17 वह नदियों से लुत्फ़अंदोज़ नहीं होगा, शहद और बालाई की नहरों से मज़ा नहीं लेगा। \v 18 जो कुछ उसने हासिल किया उसे वह हज़म नहीं करेगा बल्कि सब कुछ वापस करेगा। जो दौलत उसने अपने कारोबार से कमाई उससे वह लुत्फ़ नहीं उठाएगा। \v 19 क्योंकि उसने पस्तहालों पर ज़ुल्म करके उन्हें तर्क किया है, उसने ऐसे घरों को छीन लिया है जिन्हें उसने तामीर नहीं किया था। \v 20 उसने पेट में कभी सुकून महसूस नहीं किया बल्कि जो कुछ भी चाहता था उसे बचने नहीं दिया। \v 21 जब वह खाना खाता है तो कुछ नहीं बचता, इसलिए उस की ख़ुशहाली क़ायम नहीं रहेगी। \v 22 ज्योंही उसे कसरत की चीज़ें हासिल होंगी वह मुसीबत में फँस जाएगा। तब दुख-दर्द का पूरा ज़ोर उस पर आएगा। \v 23 काश अल्लाह बेदीन का पेट भरकर अपना भड़कता क़हर उस पर नाज़िल करे, काश वह अपना ग़ज़ब उस पर बरसाए। \p \v 24 गो वह लोहे के हथियार से भाग जाए, लेकिन पीतल का तीर उसे चीर डालेगा। \v 25 जब वह उसे अपनी पीठ से निकाले तो तीर की नोक उसके कलेजे में से निकलेगी। उसे दहशतनाक वाक़ियात पेश आएँगे। \v 26 गहरी तारीकी उसके ख़ज़ानों की ताक में बैठी रहेगी। ऐसी आग जो इनसानों ने नहीं लगाई उसे भस्म करेगी। उसके ख़ैमे के जितने लोग बच निकले उन्हें वह खा जाएगी। \v 27 आसमान उसे मुजरिम ठहराएगा, ज़मीन उसके ख़िलाफ़ गवाही देने के लिए खड़ी हो जाएगी। \v 28 सैलाब उसका घर उड़ा ले जाएगा, ग़ज़ब के दिन शिद्दत से बहता हुआ पानी उस पर से गुज़रेगा। \v 29 यह है वह अज्र जो अल्लाह बेदीनों को देगा, वह विरासत जिसे अल्लाह ने उनके लिए मुक़र्रर की है।” \c 21 \s1 अय्यूब : बहुत दफ़ा बेदीनों को सज़ा नहीं मिलती \p \v 1 फिर अय्यूब ने जवाब में कहा, \p \v 2 “ध्यान से मेरे अलफ़ाज़ सुनो! यही करने से मुझे तसल्ली दो! \v 3 जब तक मैं अपनी बात पेश न करूँ मुझे बरदाश्त करो, इसके बाद अगर चाहो तो मेरा मज़ाक़ उड़ाओ। \v 4 क्या मैं किसी इनसान से एहतजाज कर रहा हूँ? हरगिज़ नहीं! तो फिर क्या अजब कि मेरी रूह इतनी तंग आ गई है। \v 5 मुझ पर नज़र डालो तो तुम्हारे रोंगटे खड़े हो जाएंगे और तुम हैरानी से अपना हाथ मुँह पर रखोगे। \p \v 6 जब कभी मुझे वह ख़याल याद आता है जो मैं पेश करना चाहता हूँ तो मैं दहशतज़दा हो जाता हूँ, मेरे जिस्म पर थरथराहट तारी हो जाती है। \v 7 ख़याल यह है कि बेदीन क्यों जीते रहते हैं? न सिर्फ़ वह उम्ररसीदा हो जाते बल्कि उनकी ताक़त बढ़ती रहती है। \p \v 8 उनके बच्चे उनके सामने क़ायम हो जाते, उनकी औलाद उनकी आँखों के सामने मज़बूत हो जाती है। \v 9 उनके घर महफ़ूज़ हैं। न कोई चीज़ उन्हें डराती, न अल्लाह की सज़ा उन पर नाज़िल होती है। \v 10 उनका साँड नसल बढ़ाने में कभी नाकाम नहीं होता, उनकी गाय वक़्त पर जन्म देती, और उसके बच्चे कभी ज़ाया नहीं होते। \p \v 11 वह अपने बच्चों को बाहर खेलने के लिए भेजते हैं तो वह भेड़-बकरियों के रेवड़ की तरह घर से निकलते हैं। उनके लड़के कूदते फाँदते नज़र आते हैं। \v 12 वह दफ़ और सरोद बजाकर गीत गाते और बाँसरी की सुरीली आवाज़ निकालकर अपना दिल बहलाते हैं। \v 13 उनकी ज़िंदगी ख़ुशहाल रहती है, वह हर दिन से पूरा लुत्फ़ उठाते और आख़िरकार बड़े सुकून से पाताल में उतर जाते हैं। \p \v 14 और यह वह लोग हैं जो अल्लाह से कहते हैं, ‘हमसे दूर हो जा, हम तेरी राहों को जानना नहीं चाहते। \v 15 क़ादिरे-मुतलक़ कौन है कि हम उस की ख़िदमत करें? उससे दुआ करने से हमें क्या फ़ायदा होगा?’ \v 16 क्या उनकी ख़ुशहाली उनके अपने हाथ में नहीं होती? क्या बेदीनों के मनसूबे अल्लाह से दूर नहीं रहते? \p \v 17 ऐसा लगता है कि बेदीनों का चराग़ कभी नहीं बुझता। क्या उन पर कभी मुसीबत आती है? क्या अल्लाह कभी क़हर में आकर उन पर वह तबाही नाज़िल करता है जो उनका मुनासिब हिस्सा है? \v 18 क्या हवा के झोंके कभी उन्हें भूसे की तरह और आँधी कभी उन्हें तूड़ी की तरह उड़ा ले जाती है? अफ़सोस, ऐसा नहीं होता। \v 19 शायद तुम कहो, ‘अल्लाह उन्हें सज़ा देने के बजाए उनके बच्चों को सज़ा देगा।’ लेकिन मैं कहता हूँ कि उसे बाप को ही सज़ा देनी चाहिए ताकि वह अपने गुनाहों का नतीजा ख़ूब जान ले। \v 20 उस की अपनी ही आँखें उस की तबाही देखें, वह ख़ुद क़ादिरे-मुतलक़ के ग़ज़ब का प्याला पी ले। \v 21 क्योंकि जब उस की ज़िंदगी के मुक़र्ररा दिन इख़्तिताम तक पहुँचें तो उसे क्या परवा होगी कि मेरे बाद घरवालों के साथ क्या होगा। \p \v 22 लेकिन कौन अल्लाह को इल्म सिखा सकता है? वह तो बुलंदियों पर रहनेवालों की भी अदालत करता है। \v 23 एक शख़्स वफ़ात पाते वक़्त ख़ूब तनदुरुस्त होता है। जीते-जी वह बड़े सुकून और इतमीनान से ज़िंदगी गुज़ार सका। \v 24 उसके बरतन दूध से भरे रहे, उस की हड्डियों का गूदा तरो-ताज़ा रहा। \v 25 दूसरा शख़्स शिकस्ता हालत में मर जाता है और उसे कभी ख़ुशहाली का लुत्फ़ नसीब नहीं हुआ। \v 26 अब दोनों मिलकर ख़ाक में पड़े रहते हैं, दोनों कीड़े-मकोड़ों से ढाँपे रहते हैं। \p \v 27 सुनो, मैं तुम्हारे ख़यालात और उन साज़िशों से वाक़िफ़ हूँ जिनसे तुम मुझ पर ज़ुल्म करना चाहते हो। \v 28 क्योंकि तुम कहते हो, ‘रईस का घर कहाँ है? वह ख़ैमा किधर गया जिसमें बेदीन बसते थे? वह अपने गुनाहों के सबब से ही तबाह हो गए हैं।’ \v 29 लेकिन उनसे पूछ लो जो इधर-उधर सफ़र करते रहते हैं। तुम्हें उनकी गवाही तसलीम करनी चाहिए \v 30 कि आफ़त के दिन शरीर को सहीह-सलामत छोड़ा जाता है, कि ग़ज़ब के दिन उसे रिहाई मिलती है। \p \v 31 कौन उसके रूबरू उसके चाल-चलन की मलामत करता, कौन उसे उसके ग़लत काम का मुनासिब अज्र देता है? \v 32 लोग उसके जनाज़े में शरीक होकर उसे क़ब्र तक ले जाते हैं। उस की क़ब्र पर चौकीदार लगाया जाता है। \v 33 वादी की मिट्टी के ढेले उसे मीठे लगते हैं। जनाज़े के पीछे पीछे तमाम दुनिया, उसके आगे आगे अनगिनत हुजूम चलता है। \v 34 चुनाँचे तुम मुझे अबस बातों से क्यों तसल्ली दे रहे हो? तुम्हारे जवाबों में तुम्हारी बेवफ़ाई ही नज़र आती है।” \c 22 \s1 इलीफ़ज़ : अय्यूब शरीर है \p \v 1 फिर इलीफ़ज़ तेमानी ने जवाब देकर कहा, \p \v 2 “क्या अल्लाह इनसान से फ़ायदा उठा सकता है? हरगिज़ नहीं! उसके लिए दानिशमंद भी फ़ायदे का बाइस नहीं। \v 3 अगर तू रास्तबाज़ हो भी तो क्या वह इससे अपने लिए नफ़ा उठा सकता है? हरगिज़ नहीं! अगर तू बेइलज़ाम ज़िंदगी गुज़ारे तो क्या उसे कुछ हासिल होता है? \v 4 अल्लाह तुझे तेरी ख़ुदातरस ज़िंदगी के सबब से मलामत नहीं कर रहा। यह न सोच कि वह इसी लिए अदालत में तुझसे जवाब तलब कर रहा है। \v 5 नहीं, वजह तेरी बड़ी बदकारी, तेरे लामहदूद गुनाह हैं। \p \v 6 जब तेरे भाइयों ने तुझसे क़र्ज़ लिया तो तूने बिलावजह वह चीज़ें अपना ली होंगी जो उन्होंने तुझे ज़मानत के तौर पर दी थीं, तूने उन्हें उनके कपड़ों से महरूम कर दिया होगा। \v 7 तूने थकेमाँदों को पानी पिलाने से और भूके मरनेवालों को खाना खिलाने से इनकार किया होगा। \v 8 बेशक तेरा रवैया इस ख़याल पर मबनी था कि पूरा मुल्क ताक़तवरों की मिलकियत है, कि सिर्फ़ बड़े लोग उसमें रह सकते हैं। \v 9 तूने बेवाओं को ख़ाली हाथ मोड़ दिया होगा, यतीमों की ताक़त पाश पाश की होगी। \v 10 इसी लिए तू फंदों से घिरा रहता है, अचानक ही तुझे दहशतनाक वाक़ियात डराते हैं। \v 11 यही वजह है कि तुझ पर ऐसा अंधेरा छा गया है कि तू देख नहीं सकता, कि सैलाब ने तुझे डुबो दिया है। \p \v 12 क्या अल्लाह आसमान की बुलंदियों पर नहीं होता? वह तो सितारों पर नज़र डालता है, ख़ाह वह कितने ही ऊँचे क्यों न हों। \v 13 तो भी तू कहता है, ‘अल्लाह क्या जानता है? क्या वह काले बादलों में से देखकर अदालत कर सकता है? \v 14 वह घने बादलों में छुपा रहता है, इसलिए जब वह आसमान के गुंबद पर चलता है तो उसे कुछ नज़र नहीं आता।’ \v 15 क्या तू उस क़दीम राह से बाज़ नहीं आएगा जिस पर बदकार चलते रहे हैं? \v 16 वह तो अपने मुक़र्ररा वक़्त से पहले ही सुकड़ गए, उनकी बुनियादें सैलाब से ही उड़ा ली गईं। \v 17 उन्होंने अल्लाह से कहा, ‘हमसे दूर हो जा,’ और ‘क़ादिरे-मुतलक़ हमारे लिए क्या कुछ कर सकता है?’ \v 18 लेकिन अल्लाह ही ने उनके घरों को भरपूर ख़ुशहाली से नवाज़ा, गो बेदीनों के बुरे मनसूबे उससे दूर ही दूर रहते हैं। \v 19 रास्तबाज़ उनकी तबाही देखकर ख़ुश हुए, बेक़ुसूरों ने उनकी हँसी उड़ाकर कहा, \v 20 ‘लो, यह देखो, उनकी जायदाद किस तरह मिट गई, उनकी दौलत किस तरह भस्म हो गई है!’ \p \v 21 ऐ अय्यूब, अल्लाह से सुलह करके सलामती हासिल कर, तब ही तू ख़ुशहाली पाएगा। \v 22 अल्लाह के मुँह की हिदायत अपना ले, उसके फ़रमान अपने दिल में महफ़ूज़ रख। \v 23 अगर तू क़ादिरे-मुतलक़ के पास वापस आए तो बहाल हो जाएगा, और तेरे ख़ैमे से बदी दूर ही रहेगी। \v 24 सोने को ख़ाक के बराबर, ओफ़ीर का ख़ालिस सोना वादी के पत्थर के बराबर समझ ले \v 25 तो क़ादिरे-मुतलक़ ख़ुद तेरा सोना होगा, वही तेरे लिए चाँदी का ढेर होगा। \v 26 तब तू क़ादिरे-मुतलक़ से लुत्फ़अंदोज़ होगा और अल्लाह के हुज़ूर अपना सर उठा सकेगा। \v 27 तू उससे इल्तिजा करेगा तो वह तेरी सुनेगा और तू अपनी मन्नतें बढ़ा सकेगा। \v 28 जो कुछ भी तू करने का इरादा रखे उसमें तुझे कामयाबी होगी, तेरी राहों पर रौशनी चमकेगी। \v 29 क्योंकि जो शेख़ी बघारता है उसे अल्लाह पस्त करता जबकि जो पस्तहाल है उसे वह नजात देता है। \v 30 वह बेक़ुसूर को छुड़ाता है, चुनाँचे अगर तेरे हाथ पाक हों तो वह तुझे छुड़ाएगा।” \c 23 \s1 अय्यूब : काश मैं अल्लाह को कहीं पाता \p \v 1 अय्यूब ने जवाब में कहा, \p \v 2 “बेशक आज मेरी शिकायत सरकशी का इज़हार है, हालाँकि मैं अपनी आहों पर क़ाबू पाने की कोशिश कर रहा हूँ। \p \v 3 काश मैं उसे पाने का इल्म रखूँ ताकि उस की सुकूनतगाह तक पहुँच सकूँ। \v 4 फिर मैं अपना मामला तरतीबवार उसके सामने पेश करता, मैं अपना मुँह दलायल से भर लेता। \v 5 तब मुझे उसके जवाबों का पता चलता, मैं उसके बयानात पर ग़ौर कर सकता। \v 6 क्या वह अपनी अज़ीम क़ुव्वत मुझसे लड़ने पर सर्फ़ करता? हरगिज़ नहीं! वह यक़ीनन मुझ पर तवज्जुह देता। \v 7 अगर मैं वहाँ उसके हुज़ूर आ सकता तो दियानतदार आदमी की तरह उसके साथ मुक़दमा लड़ता। तब मैं हमेशा के लिए अपने मुंसिफ़ से बच निकलता! \p \v 8 लेकिन अफ़सोस, अगर मैं मशरिक़ की तरफ़ जाऊँ तो वह वहाँ नहीं होता, मग़रिब की जानिब बढ़ूँ तो वहाँ भी नहीं मिलता। \v 9 शिमाल मैं उसे ढूँडूँ तो वह दिखाई नहीं देता, जुनूब की तरफ़ रुख़ करूँ तो वहाँ भी पोशीदा रहता है। \v 10 क्योंकि वह मेरी राह को जानता है। अगर वह मेरी जाँच-पड़ताल करता तो मैं ख़ालिस सोना साबित होता। \v 11 मेरे क़दम उस की राह में रहे हैं, मैं राह से न बाईं, न दाईं तरफ़ हटा बल्कि सीधा उस पर चलता रहा। \v 12 मैं उसके होंटों के फ़रमान से बाज़ नहीं आया बल्कि अपने दिल में ही उसके मुँह की बातें महफ़ूज़ रखी हैं। \p \v 13 अगर वह फ़ैसला करे तो कौन उसे रोक सकता है? जो कुछ भी वह करना चाहे उसे अमल में लाता है। \v 14 जो भी मनसूबा उसने मेरे लिए बाँधा उसे वह ज़रूर पूरा करेगा। और उसके ज़हन में मज़ीद बहुत-से ऐसे मनसूबे हैं। \v 15 इसी लिए मैं उसके हुज़ूर दहशतज़दा हूँ। जब भी मैं इन बातों पर ध्यान दूँ तो उससे डरता हूँ। \v 16 अल्लाह ने ख़ुद मुझे शिकस्तादिल किया, क़ादिरे-मुतलक़ ही ने मुझे दहशत खिलाई है। \v 17 क्योंकि न मैं तारीकी से तबाह हो रहा हूँ, न इसलिए कि घने अंधेरे ने मेरे चेहरे को ढाँप दिया है। \c 24 \s1 ज़मीन पर कितनी नाइनसाफ़ी पाई जाती है \p \v 1 क़ादिरे-मुतलक़ अदालत के औक़ात क्यों नहीं मुक़र्रर करता? जो उसे जानते हैं वह ऐसे दिन क्यों नहीं देखते? \v 2 बेदीन अपनी ज़मीनों की हुदूद को आगे पीछे करते और दूसरों के रेवड़ लूटकर अपनी चरागाहों में ले जाते हैं। \v 3 वह यतीमों का गधा हाँककर ले जाते और इस शर्त पर बेवा को क़र्ज़ देते हैं कि वह उन्हें ज़मानत के तौर पर अपना बैल दे। \v 4 वह ज़रूरतमंदों को रास्ते से हटाते हैं, चुनाँचे मुल्क के ग़रीबों को सरासर छुप जाना पड़ता है। \p \v 5 ज़रूरतमंद बयाबान में जंगली गधों की तरह काम करने के लिए निकलते हैं। ख़ुराक का खोज लगा लगाकर वह इधर-उधर घुमते-फिरते हैं बल्कि रेगिस्तान ही उन्हें उनके बच्चों के लिए खाना मुहैया करता है। \v 6 जो खेत उनके अपने नहीं हैं उनमें वह फ़सल काटते हैं, और बेदीनों के अंगूर के बाग़ों में जाकर वह दो-चार अंगूर चुन लेते हैं जो फ़सल चुनने के बाद बाक़ी रह गए थे। \v 7 कपड़ों से महरूम रहकर वह रात को बरहना हालत में गुज़ारते हैं। सर्दी में उनके पास कम्बल तक नहीं होता। \v 8 पहाड़ों की बारिश से वह भीग जाते और पनाहगाह न होने के बाइस पत्थरों के साथ लिपट जाते हैं। \p \v 9 बेदीन बाप से महरूम बच्चे को माँ की गोद से छीन लेते हैं बल्कि इस शर्त पर मुसीबतज़दा को क़र्ज़ देते हैं कि वह उन्हें ज़मानत के तौर पर अपना शीरख़ार बच्चा दे। \v 10 ग़रीब बरहना हालत में और कपड़े पहने बग़ैर फिरते हैं, वह भूके होते हुए पूले उठाए चलते हैं। \v 11 ज़ैतून के जो दरख़्त बेदीनों ने सफ़-दर-सफ़ लगाए थे उनके दरमियान ग़रीब ज़ैतून का तेल निकालते हैं। प्यासी हालत में वह शरीरों के हौज़ों में अंगूर को पाँवों तले कुचलकर उसका रस निकालते हैं। \v 12 शहर से मरनेवालों की आहें निकलती हैं और ज़ख़मी लोग मदद के लिए चीख़ते-चिल्लाते हैं। इसके बावुजूद अल्लाह किसी को भी मुजरिम नहीं ठहराता। \p \v 13 यह बेदीन उनमें से हैं जो नूर से सरकश हो गए हैं। न वह उस की राहों से वाक़िफ़ हैं, न उनमें रहते हैं। \v 14 सुबह-सवेरे क़ातिल उठता है ताकि मुसीबतज़दा और ज़रूरतमंद को क़त्ल करे। रात को चोर चक्कर काटता है। \v 15 ज़िनाकार की आँखें शाम के धुँधलके के इंतज़ार में रहती हैं, यह सोचकर कि उस वक़्त मैं किसी को नज़र नहीं आऊँगा। निकलते वक़्त वह अपने मुँह को ढाँप लेता है। \v 16 डाकू अंधेरे में घरों में नक़ब लगाते जबकि दिन के वक़्त वह छुपकर अपने पीछे कुंडी लगा लेते हैं। नूर को वह जानते ही नहीं। \v 17 गहरी तारीकी ही उनकी सुबह होती है, क्योंकि उनकी घने अंधेरे की दहशतों से दोस्ती हो गई है। \p \v 18 लेकिन बेदीन पानी की सतह पर झाग हैं, मुल्क में उनका हिस्सा मलऊन है और उनके अंगूर के बाग़ों की तरफ़ कोई रुजू नहीं करता। \v 19 जिस तरह काल और झुलसती गरमी बर्फ़ का पानी छीन लेती हैं उसी तरह पाताल गुनाहगारों को छीन लेता है। \v 20 माँ का रहम उन्हें भूल जाता, कीड़ा उन्हें चूस लेता और उनकी याद जाती रहती है। यक़ीनन बेदीनी लकड़ी की तरह टूट जाती है। \v 21 बेदीन बाँझ औरत पर ज़ुल्म और बेवाओं से बदसुलूकी करते हैं, \v 22 लेकिन अल्लाह ज़बरदस्तों को अपनी क़ुदरत से घसीटकर ले जाता है। वह मज़बूती से खड़े भी हों तो भी कोई यक़ीन नहीं कि ज़िंदा रहेंगे। \v 23 अल्लाह उन्हें हिफ़ाज़त से आराम करने देता है, लेकिन उस की आँखें उनकी राहों की पहरादारी करती रहती हैं। \v 24 लमहा-भर के लिए वह सरफ़राज़ होते, लेकिन फिर नेस्तो-नाबूद हो जाते हैं। उन्हें ख़ाक में मिलाकर सबकी तरह जमा किया जाता है, वह गंदुम की कटी हुई बालों की तरह मुरझा जाते हैं। \p \v 25 क्या ऐसा नहीं है? अगर कोई मुत्तफ़िक़ नहीं तो वह साबित करे कि मैं ग़लती पर हूँ, वह दिखाए कि मेरे दलायल बातिल हैं।” \c 25 \s1 बिलदद : अल्लाह के सामने कोई रास्तबाज़ नहीं ठहर सकता \p \v 1 फिर बिलदद सूख़ी ने जवाब देकर कहा, \p \v 2 “अल्लाह की हुकूमत दहशतनाक है। वही अपनी बुलंदियों पर सलामती क़ायम रखता है। \v 3 क्या कोई उसके दस्तों की तादाद गिन सकता है? उसका नूर किस पर नहीं चमकता? \v 4 तो फिर इनसान अल्लाह के सामने किस तरह रास्तबाज़ ठहर सकता है? जो औरत से पैदा हुआ वह किस तरह पाक-साफ़ साबित हो सकता है? \v 5 उस की नज़र में न चाँद पुरनूर है, न सितारे पाक हैं। \v 6 तो फिर इनसान किस तरह पाक ठहर सकता है जो कीड़ा ही है? आदमज़ाद तो मकोड़ा ही है।” \c 26 \s1 अय्यूब : तूने मुझे कितने अच्छे मशवरे दिए हैं! \p \v 1 अय्यूब ने जवाब देकर कहा, \p \v 2 “वाह जी वाह! तूने क्या ख़ूब उसे सहारा दिया जो बेबस है, क्या ख़ूब उस बाज़ू को मज़बूत कर दिया जो बेताक़त है! \v 3 तूने उसे कितने अच्छे मशवरे दिए जो हिकमत से महरूम है, अपनी समझ की कितनी गहरी बातें उस पर ज़ाहिर की हैं। \v 4 तूने किसकी मदद से यह कुछ पेश किया है? किसने तेरी रूह में वह बातें डालीं जो तेरे मुँह से निकल आई हैं? \s1 कौन अल्लाह की अज़मत का अंदाज़ा लगा सकता है? \p \v 5 अल्लाह के सामने वह तमाम मुरदा अरवाह जो पानी और उसमें रहनेवालों के नीचे बसती हैं डर के मारे तड़प उठती हैं। \v 6 हाँ, उसके सामने पाताल बरहना और उस की गहराइयाँ बेनिक़ाब हैं। \p \v 7 अल्लाह ही ने शिमाल को वीरानो-सुनसान जगह के ऊपर तान लिया, उसी ने ज़मीन को यों लगा दिया कि वह किसी चीज़ से लटकी हुई नहीं है। \v 8 उसने अपने बादलों में पानी लपेट लिया, लेकिन वह बोझ तले न फटे। \v 9 उसने अपना तख़्त नज़रों से छुपाकर अपना बादल उस पर छा जाने दिया। \v 10 उसने पानी की सतह पर दायरा बनाया जो रौशनी और अंधेरे के दरमियान हद बन गया। \p \v 11 आसमान के सतून लरज़ उठे। उस की धमकी पर वह दहशतज़दा हुए। \v 12 अपनी क़ुदरत से अल्लाह ने समुंदर को थमा दिया, अपनी हिकमत से रहब अज़दहे को टुकड़े टुकड़े कर दिया। \v 13 उसके रूह ने आसमान को साफ़ किया, उसके हाथ ने फ़रार होनेवाले साँप को छेद डाला। \v 14 लेकिन ऐसे काम उस की राहों के किनारे पर ही किए जाते हैं। जो कुछ हम उसके बारे में सुनते हैं वह धीमी धीमी आवाज़ से हमारे कान तक पहुँचता है। तो फिर कौन उस की क़ुदरत की कड़कती आवाज़ समझ सकता है?” \c 27 \s1 मैं बेक़ुसूर हूँ \p \v 1 फिर अय्यूब ने अपनी बात जारी रखी, \p \v 2 “अल्लाह की हयात की क़सम जिसने मेरा इनसाफ़ करने से इनकार किया, क़ादिरे-मुतलक़ की क़सम जिसने मेरी ज़िंदगी तलख़ कर दी है, \v 3 मेरे जीते-जी, हाँ जब तक अल्लाह का दम मेरी नाक में है \v 4 मेरे होंट झूट नहीं बोलेंगे, मेरी ज़बान धोका बयान नहीं करेगी। \v 5 मैं कभी तसलीम नहीं करूँगा कि तुम्हारी बात दुरुस्त है। मैं बेइलज़ाम हूँ और मरते दम तक इसके उलट नहीं कहूँगा। \v 6 मैं इसरार करता हूँ कि रास्तबाज़ हूँ और इससे कभी बाज़ नहीं आऊँगा। मेरा दिल मेरे किसी भी दिन के बारे में मुझे मलामत नहीं करता। \p \v 7 अल्लाह करे कि मेरे दुश्मन के साथ वही सुलूक किया जाए जो बेदीनों के साथ किया जाएगा, कि मेरे मुख़ालिफ़ का वह अंजाम हो जो बदकारों को पेश आएगा। \v 8 क्योंकि उस वक़्त शरीर की क्या उम्मीद रहेगी जब उसे इस ज़िंदगी से मुंक़ते किया जाएगा, जब अल्लाह उस की जान उससे तलब करेगा? \v 9 क्या अल्लाह उस की चीख़ें सुनेगा जब वह मुसीबत में फँसकर मदद के लिए पुकारेगा? \v 10 या क्या वह क़ादिरे-मुतलक़ से लुत्फ़अंदोज़ होगा और हर वक़्त अल्लाह को पुकारेगा? \p \v 11 अब मैं तुम्हें अल्लाह की क़ुदरत के बारे में तालीम दूँगा, क़ादिरे-मुतलक़ का इरादा तुमसे नहीं छुपाऊँगा। \v 12 देखो, तुम सबने इसका मुशाहदा किया है। तो फिर इस क़िस्म की बातिल बातें क्यों करते हो? \s1 बेदीन ज़िंदा नहीं रहेगा \p \v 13 बेदीन अल्लाह से क्या अज्र पाएगा, ज़ालिम को क़ादिरे-मुतलक़ से मीरास में क्या मिलेगा? \v 14 गो उसके बच्चे मुतअद्दिद हों, लेकिन आख़िरकार वह तलवार की ज़द में आएँगे। उस की औलाद भूकी रहेगी। \v 15 जो बच जाएँ उन्हें मोहलक बीमारी से क़ब्र में पहुँचाया जाएगा, और उनकी बेवाएँ मातम नहीं कर पाएँगी। \v 16 बेशक वह ख़ाक की तरह चाँदी का ढेर लगाए और मिट्टी की तरह नफ़ीस कपड़ों का तोदा इकट्ठा करे, \v 17 लेकिन जो कपड़े वह जमा करे उन्हें रास्तबाज़ पहन लेगा, और जो चाँदी वह इकट्ठी करे उसे बेक़ुसूर तक़सीम करेगा। \v 18 जो घर बेदीन बना ले वह घोंसले की मानिंद है, उस आरिज़ी झोंपड़ी की मानिंद जो चौकीदार अपने लिए बना लेता है। \v 19 वह अमीर हालत में सो जाता है, लेकिन आख़िरी दफ़ा। जब अपनी आँखें खोल लेता तो तमाम दौलत जाती रही है। \v 20 उस पर हौलनाक वाक़ियात का सैलाब टूट पड़ता, उसे रात के वक़्त आँधी छीन लेती है। \v 21 मशरिक़ी लू उसे उड़ा ले जाती, उसे उठाकर उसके मक़ाम से दूर फेंक देती है। \v 22 बेरहमी से वह उस पर यों झपट्टा मारती रहती है कि उसे बार बार भागना पड़ता है। \v 23 वह तालियाँ बजाकर अपनी हिक़ारत का इज़हार करती, अपनी जगह से आवाज़े कसती है। \c 28 \s1 हिकमत कहाँ पाई जाती है? \p \v 1 यक़ीनन चाँदी की कानें होती हैं और ऐसी जगहें जहाँ सोना ख़ालिस किया जाता है। \v 2 लोहा ज़मीन से निकाला जाता और लोग पत्थर पिघलाकर ताँबा बना लेते हैं। \v 3 इनसान अंधेरे को ख़त्म करके ज़मीन की गहरी गहरी जगहों तक कच्ची धात का खोज लगाता है, ख़ाह वह कितने अंधेरे में क्यों न हो। \v 4 एक अजनबी क़ौम सुरंग लगाती है। जब रस्सों से लटके हुए काम करते और इनसानों से दूर कान में झूमते हैं तो ज़मीन पर गुज़रनेवालों को उनकी याद ही नहीं रहती। \v 5 ज़मीन की सतह पर ख़ुराक पैदा होती है जबकि उस की गहराइयाँ यों तबदील हो जाती हैं जैसे उसमें आग लगी हो। \v 6 पत्थरों से संगे-लाजवर्द निकाला जाता है जिसमें सोने के ज़र्रे भी पाए जाते हैं। \p \v 7 यह ऐसे रास्ते हैं जो कोई भी शिकारी परिंदा नहीं जानता, जो किसी भी बाज़ ने नहीं देखा। \v 8 जंगल के रोबदार जानवरों में से कोई भी इन राहों पर नहीं चला, किसी भी शेरबबर ने इन पर क़दम नहीं रखा। \v 9 इनसान संगे-चक़माक़ पर हाथ लगाकर पहाड़ों को जड़ से उलटा देता है। \v 10 वह पत्थर में सुरंग लगाकर हर क़िस्म की क़ीमती चीज़ देख लेता \v 11 और ज़मीनदोज़ नदियों को बंद करके पोशीदा चीज़ें रौशनी में लाता है। \p \v 12 लेकिन हिकमत कहाँ पाई जाती है, समझ कहाँ से मिलती है? \v 13 इनसान उस तक जानेवाली राह नहीं जानता, क्योंकि उसे मुल्के-हयात में पाया नहीं जाता। \v 14 समुंदर कहता है, ‘हिक्मत मेरे पास नहीं है,’ और उस की गहराइयाँ बयान करती हैं, ‘यहाँ भी नहीं है।’ \p \v 15 हिकमत को न ख़ालिस सोने, न चाँदी से ख़रीदा जा सकता है। \v 16 उसे पाने के लिए न ओफ़ीर का सोना, न बेशक़ीमत अक़ीक़े-अहमर \f + \fr 28:16 \ft carnelian \f* या संगे-लाजवर्द \f + \fr 28:16 \ft lapis lazuli \f* काफ़ी हैं। \v 17 सोना और शीशा उसका मुक़ाबला नहीं कर सकते, न वह सोने के ज़ेवरात के एवज़ मिल सकती है। \v 18 उस की निसबत मूँगा और बिल्लौर की क्या क़दर है? हिकमत से भरी थैली मोतियों से कहीं ज़्यादा क़ीमती है। \v 19 एथोपिया का ज़बरजद \f + \fr 28:19 \ft peridot \f* उसका मुक़ाबला नहीं कर सकता, उसे ख़ालिस सोने के लिए ख़रीदा नहीं जा सकता। \p \v 20 हिकमत कहाँ से आती, समझ कहाँ से मिल सकती है? \v 21 वह तमाम जानदारों से पोशीदा रहती बल्कि परिंदों से भी छुपी रहती है। \v 22 पाताल और मौत उसके बारे में कहते हैं, ‘हमने उसके बारे में सिर्फ़ अफ़वाहें सुनी हैं।’ \p \v 23 लेकिन अल्लाह उस तक जानेवाली राह को जानता है, उसे मालूम है कि कहाँ मिल सकती है। \v 24 क्योंकि उसी ने ज़मीन की हुदूद तक देखा, आसमान तले सब कुछ पर नज़र डाली \v 25 ताकि हवा का वज़न मुक़र्रर करे और पानी की पैमाइश करके उस की हुदूद मुतैयिन करे। \v 26 उसी ने बारिश के लिए फ़रमान जारी किया और बादल की कड़कती बिजली के लिए रास्ता तैयार किया। \v 27 उसी वक़्त उसने हिकमत को देखकर उस की जाँच-पड़ताल की। उसने उसे क़ायम भी किया और उस की तह तक तहक़ीक़ भी की। \v 28 इनसान से उसने कहा, ‘सुनो, अल्लाह का ख़ौफ़ मानना ही हिकमत और बुराई से दूर रहना ही समझ है’।” \c 29 \s1 काश मेरी ज़िंदगी पहले की तरह हो \p \v 1 अय्यूब ने अपनी बात जारी रखकर कहा, \p \v 2 “काश मैं दुबारा माज़ी के वह दिन गुज़ार सकूँ जब अल्लाह मेरी देख-भाल करता था, \v 3 जब उस की शमा मेरे सर के ऊपर चमकती रही और मैं उस की रौशनी की मदद से अंधेरे में चलता था। \v 4 उस वक़्त मेरी जवानी उरूज पर थी और मेरा ख़ैमा अल्लाह के साये में रहता था। \v 5 क़ादिरे-मुतलक़ मेरे साथ था, और मैं अपने बेटों से घिरा रहता था। \v 6 कसरत के बाइस मेरे क़दम दही से धोए रहते और चट्टान से तेल की नदियाँ फूटकर निकलती थीं। \p \v 7 जब कभी मैं शहर के दरवाज़े से निकलकर चौक में अपनी कुरसी पर बैठ जाता \v 8 तो जवान आदमी मुझे देखकर पीछे हटकर छुप जाते, बुज़ुर्ग उठकर खड़े रहते, \v 9 रईस बोलने से बाज़ आकर मुँह पर हाथ रखते, \v 10 शुरफ़ा की आवाज़ दब जाती और उनकी ज़बान तालू से चिपक जाती थी। \p \v 11 जिस कान ने मेरी बातें सुनीं उसने मुझे मुबारक कहा, जिस आँख ने मुझे देखा उसने मेरे हक़ में गवाही दी। \v 12 क्योंकि जो मुसीबत में आकर आवाज़ देता उसे मैं बचाता, बेसहारा यतीम को छुटकारा देता था। \v 13 तबाह होनेवाले मुझे बरकत देते थे। मेरे बाइस बेवाओं के दिलों से ख़ुशी के नारे उभर आते थे। \v 14 मैं रास्तबाज़ी से मुलब्बस और रास्तबाज़ी मुझसे मुलब्बस रहती थी, इनसाफ़ मेरा चोग़ा और पगड़ी था। \p \v 15 अंधों के लिए मैं आँखें, लँगड़ों के लिए पाँव बना रहता था। \v 16 मैं ग़रीबों का बाप था, और जब कभी अजनबी को मुक़दमा लड़ना पड़ा तो मैं ग़ौर से उसके मामले का मुआयना करता था ताकि उसका हक़ मारा न जाए। \v 17 मैंने बेदीन का जबड़ा तोड़कर उसके दाँतों में से शिकार छुड़ाया। \p \v 18 उस वक़्त मेरा ख़याल था, ‘मैं अपने ही घर में वफ़ात पाऊँगा, सीमुरग़ की तरह अपनी ज़िंदगी के दिनों में इज़ाफ़ा करूँगा। \v 19 मेरी जड़ें पानी तक फैली और मेरी शाख़ें ओस से तर रहेंगी। \v 20 मेरी इज़्ज़त हर वक़्त ताज़ा रहेगी, और मेरे हाथ की कमान को नई तक़वियत मिलती रहेगी।’ \p \v 21 लोग मेरी सुनकर ख़ामोशी से मेरे मशवरों के इंतज़ार में रहते थे। \v 22 मेरे बात करने पर वह जवाब में कुछ न कहते बल्कि मेरे अलफ़ाज़ हलकी-सी बूँदा-बाँदी की तरह उन पर टपकते रहते। \v 23 जिस तरह इनसान शिद्दत से बारिश के इंतज़ार में रहता है उसी तरह वह मेरे इंतज़ार में रहते थे। वह मुँह पसारकर बहार की बारिश की तरह मेरे अलफ़ाज़ को जज़ब कर लेते थे। \v 24 जब मैं उनसे बात करते वक़्त मुसकराता तो उन्हें यक़ीन नहीं आता था, मेरी उन पर मेहरबानी उनके नज़दीक निहायत क़ीमती थी। \v 25 मैं उनकी राह उनके लिए चुनकर उनकी क़ियादत करता, उनके दरमियान यों बसता था जिस तरह बादशाह अपने दस्तों के दरमियान। मैं उस की मानिंद था जो मातम करनेवालों को तसल्ली देता है। \c 30 \s1 मुझे रद्द किया गया है \p \v 1 लेकिन अब वह मेरा मज़ाक़ उड़ाते हैं, हालाँकि उनकी उम्र मुझसे कम है और मैं उनके बापों को अपनी भेड़-बकरियों की देख-भाल करनेवाले कुत्तों के साथ काम पर लगाने के भी लायक़ नहीं समझता था। \v 2 मेरे लिए उनके हाथों की मदद का क्या फ़ायदा था? उनकी पूरी ताक़त तो जाती रही थी। \v 3 ख़ुराक की कमी और शदीद भूक के मारे वह ख़ुश्क ज़मीन की थोड़ी-बहुत पैदावार कतर कतरकर खाते हैं। हर वक़्त वह तबाही और वीरानी के दामन में रहते हैं। \v 4 वह झाड़ियों से ख़त्मी का फल तोड़कर खाते, झाड़ियों \f + \fr 30:4 \ft यानी झाड़ी बनाम broom, सींक क़िस्म की झाड़ी जिसके फूल ज़रद होते हैं। \f* की जड़ें आग तापने के लिए इकट्ठी करते हैं। \v 5 उन्हें आबादियों से ख़ारिज किया गया है, और लोग ‘चोर चोर’ चिल्लाकर उन्हें भगा देते हैं। \v 6 उन्हें घाटियों की ढलानों पर बसना पड़ता, वह ज़मीन के ग़ारों में और पत्थरों के दरमियान ही रहते हैं। \v 7 झाड़ियों के दरमियान वह आवाज़ें देते और मिलकर ऊँटकटारों तले दबक जाते हैं। \v 8 इन कमीने और बेनाम लोगों को मार मारकर मुल्क से भगा दिया गया है। \p \v 9 और अब मैं इन्हीं का निशाना बन गया हूँ। अपने गीतों में वह मेरा मज़ाक़ उड़ाते हैं, मेरी बुरी हालत उनके लिए मज़हकाख़ेज़ मिसाल बन गई है। \v 10 वह घिन खाकर मुझसे दूर रहते और मेरे मुँह पर थूकने से नहीं रुकते। \v 11 चूँकि अल्लाह ने मेरी कमान की ताँत खोलकर मेरी रुसवाई की है, इसलिए वह मेरी मौजूदगी में बेलगाम हो गए हैं। \v 12 मेरे दहने हाथ हुजूम खड़े होकर मुझे ठोकर खिलाते और मेरी फ़सील के साथ मिट्टी के ढेर लगाते हैं ताकि उसमें रख़ना डालकर मुझे तबाह करें। \v 13 वह मेरी क़िलाबंदियाँ ढाकर मुझे ख़ाक में मिलाने में कामयाब हो जाते हैं। किसी और की मदद दरकार ही नहीं। \v 14 वह रख़ने में दाख़िल होते और जौक़-दर-जौक़ तबाहशुदा फ़सील में से गुज़रकर आगे बढ़ते हैं। \v 15 हौलनाक वाक़ियात मेरे ख़िलाफ़ खड़े हो गए हैं, और वह तेज़ हवा की तरह मेरे वक़ार को उड़ा ले जा रहे हैं। मेरी सलामती बादल की तरह ओझल हो गई है। \p \v 16 और अब मेरी जान निकल रही है, मैं मुसीबत के दिनों के क़ाबू में आ गया हूँ। \v 17 रात को मेरी हड्डियों को छेदा जाता है, कतरनेवाला दर्द मुझे कभी नहीं छोड़ता। \v 18 अल्लाह बड़े ज़ोर से मेरा कपड़ा पकड़कर गरेबान की तरह मुझे अपनी सख़्त गिरिफ़्त में रखता है। \v 19 उसने मुझे कीचड़ में फेंक दिया है, और देखने में मैं ख़ाक और मिट्टी ही बन गया हूँ। \v 20 मैं तुझे पुकारता, लेकिन तू जवाब नहीं देता। मैं खड़ा हो जाता, लेकिन तू मुझे घूरता ही रहता है। \v 21 तू मेरे साथ अपना सुलूक बदलकर मुझ पर ज़ुल्म करने लगा, अपने हाथ के पूरे ज़ोर से मुझे सताने लगा है। \v 22 तू मुझे उड़ाकर हवा पर सवार होने देता, गरजते तूफ़ान में घुलने देता है। \v 23 हाँ, अब मैं जानता हूँ कि तू मुझे मौत के हवाले करेगा, उस घर में पहुँचाएगा जहाँ एक दिन तमाम जानदार जमा हो जाते हैं। \p \v 24 यक़ीनन मैंने कभी भी अपना हाथ किसी ज़रूरतमंद के ख़िलाफ़ नहीं उठाया जब उसने अपनी मुसीबत में आवाज़ दी। \v 25 बल्कि जब किसी का बुरा हाल था तो मैं हमदर्दी से रोने लगा, ग़रीबों की हालत देखकर मेरा दिल ग़म खाने लगा। \v 26 ताहम मुझ पर मुसीबत आई, अगरचे मैं भलाई की उम्मीद रख सकता था। मुझ पर घना अंधेरा छा गया, हालाँकि मैं रौशनी की तवक़्क़ो कर सकता था। \v 27 मेरे अंदर सब कुछ मुज़तरिब है और कभी आराम नहीं कर सकता, मेरा वास्ता तकलीफ़देह दिनों से पड़ता है। \v 28 मैं मातमी लिबास में फिरता हूँ और कोई मुझे तसल्ली नहीं देता, हालाँकि मैं जमात में खड़े होकर मदद के लिए आवाज़ देता हूँ। \v 29 मैं गीदड़ों का भाई और उक़ाबी उल्लुओं का साथी बन गया हूँ। \v 30 मेरी जिल्द काली हो गई, मेरी हड्डियाँ तपती गरमी के सबब से झुलस गई हैं। \v 31 अब मेरा सरोद सिर्फ़ मातम करने और मेरी बाँसरी सिर्फ़ रोनेवालों के लिए इस्तेमाल होती है। \c 31 \s1 मेरी आख़िरी बात : मैं बेगुनाह हूँ \p \v 1 मैंने अपनी आँखों से अहद बाँधा है। तो फिर मैं किस तरह किसी कुँवारी पर नज़र डाल सकता हूँ? \v 2 क्योंकि इनसान को आसमान पर रहनेवाले ख़ुदा की तरफ़ से क्या नसीब है, उसे बुलंदियों पर बसनेवाले क़ादिरे-मुतलक़ से क्या विरासत पाना है? \v 3 क्या ऐसा नहीं है कि नारास्त शख़्स के लिए आफ़त और बदकार के लिए तबाही मुक़र्रर है? \v 4 मेरी राहें तो अल्लाह को नज़र आती हैं, वह मेरा हर क़दम गिन लेता है। \p \v 5 न मैं कभी धोके से चला, न मेरे पाँवों ने कभी फ़रेब देने के लिए फुरती की। अगर इसमें ज़रा भी शक हो \v 6 तो अल्लाह मुझे इनसाफ़ के तराज़ू में तोल ले, अल्लाह मेरी बेइलज़ाम हालत मालूम करे। \v 7 अगर मेरे क़दम सहीह राह से हट गए, मेरी आँखें मेरे दिल को ग़लत राह पर ले गईं या मेरे हाथ दाग़दार हुए \v 8 तो फिर जो बीज मैंने बोया उस की पैदावार कोई और खाए, जो फ़सलें मैंने लगाईं उन्हें उखाड़ा जाए। \p \v 9 अगर मेरा दिल किसी औरत से नाजायज़ ताल्लुक़ात रखने पर उकसाया गया और मैं इस मक़सद से अपने पड़ोसी के दरवाज़े पर ताक लगाए बैठा \v 10 तो फिर अल्लाह करे कि मेरी बीवी किसी और आदमी की गंदुम पीसे, कि कोई और उस पर झुक जाए। \v 11 क्योंकि ऐसी हरकत शर्मनाक होती, ऐसा जुर्म सज़ा के लायक़ होता है। \v 12 ऐसे गुनाह की आग पाताल तक सब कुछ भस्म कर देती है। अगर वह मुझसे सरज़द होता तो मेरी तमाम फ़सल जड़ों तक राख कर देता। \p \v 13 अगर मेरा नौकर-नौकरानियों के साथ झगड़ा था और मैंने उनका हक़ मारा \v 14 तो मैं क्या करूँ जब अल्लाह अदालत में खड़ा हो जाए? जब वह मेरी पूछ-गछ करे तो मैं उसे क्या जवाब दूँ? \v 15 क्योंकि जिसने मुझे मेरी माँ के पेट में बनाया उसने उन्हें भी बनाया। एक ही ने उन्हें भी और मुझे भी रहम में तश्कील दिया। \p \v 16 क्या मैंने पस्तहालों की ज़रूरियात पूरी करने से इनकार किया या बेवा की आँखों को बुझने दिया? हरगिज़ नहीं! \v 17 क्या मैंने अपनी रोटी अकेले ही खाई और यतीम को उसमें शरीक न किया? \v 18 हरगिज़ नहीं, बल्कि अपनी जवानी से लेकर मैंने उसका बाप बनकर उस की परवरिश की, अपनी पैदाइश से ही बेवा की राहनुमाई की। \v 19 जब कभी मैंने देखा कि कोई कपड़ों की कमी के बाइस हलाक हो रहा है, कि किसी ग़रीब के पास कम्बल तक नहीं \v 20 तो मैंने उसे अपनी भेड़ों की कुछ ऊन दी ताकि वह गरम हो सके। ऐसे लोग मुझे दुआ देते थे। \v 21 मैंने कभी भी यतीमों के ख़िलाफ़ हाथ नहीं उठाया, उस वक़्त भी नहीं जब शहर के दरवाज़े में बैठे बुज़ुर्ग मेरे हक़ में थे। \v 22 अगर ऐसा न था तो अल्लाह करे कि मेरा शाना कंधे से निकलकर गिर जाए, कि मेरा बाज़ू जोड़ से फाड़ा जाए! \v 23 ऐसी हरकतें मेरे लिए नामुमकिन थीं, क्योंकि अगर मैं ऐसा करता तो मैं अल्लाह से दहशत खाता रहता, मैं उससे डर के मारे क़ायम न रह सकता। \p \v 24 क्या मैंने सोने पर अपना पूरा भरोसा रखा या ख़ालिस सोने से कहा, ‘तुझ पर ही मेरा एतमाद है’? हरगिज़ नहीं! \v 25 क्या मैं इसलिए ख़ुश था कि मेरी दौलत ज़्यादा है और मेरे हाथ ने बहुत कुछ हासिल किया है? हरगिज़ नहीं! \v 26 क्या सूरज की चमक-दमक और चाँद की पुरवक़ार रविश देखकर \v 27 मेरे दिल को कभी चुपके से ग़लत राह पर लाया गया? क्या मैंने कभी उनका एहतराम किया? \f + \fr 31:27 \ft लफ़्ज़ी तरजुमा : हाथ से उन्हें बोसा दिया। \f* \v 28 हरगिज़ नहीं, क्योंकि यह भी सज़ा के लायक़ जुर्म है। अगर मैं ऐसा करता तो बुलंदियों पर रहनेवाले ख़ुदा का इनकार करता। \p \v 29 क्या मैं कभी ख़ुश हुआ जब मुझसे नफ़रत करनेवाला तबाह हुआ? क्या मैं बाग़ बाग़ हुआ जब उस पर मुसीबत आई? हरगिज़ नहीं! \v 30 मैंने अपने मुँह को इजाज़त न दी कि गुनाह करके उस की जान पर लानत भेजे। \v 31 बल्कि मेरे ख़ैमे के आदमियों को तसलीम करना पड़ा, ‘कोई नहीं है जो अय्यूब के गोश्त से सेर न हुआ।’ \v 32 अजनबी को बाहर गली में रात गुज़ारनी नहीं पड़ती थी बल्कि मेरा दरवाज़ा मुसाफ़िरों के लिए खुला रहता था। \v 33 क्या मैंने कभी आदम की तरह अपना गुनाह छुपाकर अपना क़ुसूर दिल में पोशीदा रखा, \v 34 इसलिए कि हुजूम से डरता और अपने रिश्तेदारों से दहशत खाता था? हरगिज़ नहीं! मैंने कभी भी ऐसा काम न किया जिसके बाइस मुझे डर के मारे चुप रहना पड़ता और घर से निकल नहीं सकता था। \p \v 35 काश कोई मेरी सुने! देखो, यहाँ मेरी बात पर मेरे दस्तख़त हैं, अब क़ादिरे-मुतलक़ मुझे जवाब दे। काश मेरे मुख़ालिफ़ लिखकर मुझे वह इलज़ामात बताएँ जो उन्होंने मुझ पर लगाए हैं! \v 36 अगर इलज़ामात का काग़ज़ मिलता तो मैं उसे उठाकर अपने कंधे पर रखता, उसे पगड़ी की तरह अपने सर पर बाँध लेता। \v 37 मैं अल्लाह को अपने क़दमों का पूरा हिसाब-किताब देकर रईस की तरह उसके क़रीब पहुँचता। \p \v 38 क्या मेरी ज़मीन ने मदद के लिए पुकारकर मुझ पर इलज़ाम लगाया है? क्या उस की रेघारयाँ मेरे सबब से मिलकर रो पड़ी हैं? \v 39 क्या मैंने उस की पैदावार अज्र दिए बग़ैर खाई, उस पर मेहनत-मशक़्क़त करनेवालों के लिए आहें भरने का बाइस बन गया? हरगिज़ नहीं! \v 40 अगर मैं इसमें क़ुसूरवार ठहरूँ तो गंदुम के बजाए ख़ारदार झाड़ियाँ और जौ के बजाए धतूरा \f + \fr 31:40 \ft एक बदबूदार पौदा। \f* उगे।” यों अय्यूब की बातें इख़्तिताम को पहुँच गईं। \c 32 \s1 चौथे साथी इलीहू की तक़रीर \p \v 1 तब मज़कूरा तीनों आदमी अय्यूब को जवाब देने से बाज़ आए, क्योंकि वह अब तक समझता था कि मैं रास्तबाज़ हूँ। \v 2 यह देखकर इलीहू बिन बरकेल ग़ुस्से हो गया। बूज़ शहर के रहनेवाले इस आदमी का ख़ानदान राम था। एक तरफ़ तो वह अय्यूब से ख़फ़ा था, क्योंकि यह अपने आपको अल्लाह के सामने रास्तबाज़ ठहराता था। \v 3 दूसरी तरफ़ वह तीनों दोस्तों से भी नाराज़ था, क्योंकि न वह अय्यूब को सहीह जवाब दे सके, न साबित कर सके कि मुजरिम है। \v 4 इलीहू ने अब तक अय्यूब से बात नहीं की थी। जब तक दूसरों ने बात पूरी नहीं की थी वह ख़ामोश रहा, क्योंकि वह बुज़ुर्ग थे। \v 5 लेकिन अब जब उसने देखा कि तीनों आदमी मज़ीद कोई जवाब नहीं दे सकते तो वह भड़क उठा \v 6 और जवाब में कहा, \p “मैं कमउम्र हूँ जबकि आप सब उम्ररसीदा हैं, इसलिए मैं कुछ शरमीला था, मैं आपको अपनी राय बताने से डरता था। \v 7 मैंने सोचा, चलो वह बोलें जिनके ज़्यादा दिन गुज़रे हैं, वह तालीम दें जिन्हें मुतअद्दिद सालों का तजरबा हासिल है। \p \v 8 लेकिन जो रूह इनसान में है यानी जो दम क़ादिरे-मुतलक़ ने उसमें फूँक दिया वही इनसान को समझ अता करता है। \v 9 न सिर्फ़ बूढ़े लोग दानिशमंद हैं, न सिर्फ़ वह इनसाफ़ समझते हैं जिनके बाल सफ़ेद हैं। \v 10 चुनाँचे मैं गुज़ारिश करता हूँ कि ज़रा मेरी बात सुनें, मुझे भी अपनी राय पेश करने दीजिए। \p \v 11 मैं आपके अलफ़ाज़ के इंतज़ार में रहा। जब आप मौज़ूँ जवाब तलाश कर रहे थे तो मैं आपकी दानिशमंद बातों पर ग़ौर करता रहा। \v 12 मैंने आप पर पूरी तवज्जुह दी, लेकिन आपमें से कोई अय्यूब को ग़लत साबित न कर सका, कोई उसके दलायल का मुनासिब जवाब न दे पाया। \v 13 अब ऐसा न हो कि आप कहें, ‘हमने अय्यूब में हिकमत पाई है, इनसान उसे शिकस्त देकर भगा नहीं सकता बल्कि सिर्फ़ अल्लाह ही।’ \v 14 क्योंकि अय्यूब ने अपने दलायल की तरतीब से मेरा मुक़ाबला नहीं किया, और जब मैं जवाब दूँगा तो आपकी बातें नहीं दोहराऊँगा। \p \v 15 आप घबराकर जवाब देने से बाज़ आए हैं, अब आप कुछ नहीं कह सकते। \v 16 क्या मैं मज़ीद इंतज़ार करूँ, गो आप ख़ामोश हो गए हैं, आप रुककर मज़ीद जवाब नहीं दे सकते? \v 17 मैं भी जवाब देने में हिस्सा लेना चाहता हूँ, मैं भी अपनी राय पेश करूँगा। \v 18 क्योंकि मेरे अंदर से अलफ़ाज़ छलक रहे हैं, मेरी रूह मेरे अंदर मुझे मजबूर कर रही है। \p \v 19 हक़ीक़त में मैं अंदर से उस नई मै की मानिंद हूँ जो बंद रखी गई हो, मैं नई मै से भरी हुई नई मशकों की तरह फटने को हूँ। \v 20 मुझे बोलना है ताकि आराम पाऊँ, लाज़िम ही है कि मैं अपने होंटों को खोलकर जवाब दूँ। \v 21 यक़ीनन न मैं किसी की जानिबदारी, न किसी की चापलूसी करूँगा। \v 22 क्योंकि मैं ख़ुशामद कर ही नहीं सकता, वरना मेरा ख़ालिक़ मुझे जल्द ही उड़ा ले जाएगा। \c 33 \s1 अल्लाह कई तरीक़ों से इनसान से हमकलाम होता है \p \v 1 ऐ अय्यूब, मेरी तक़रीर सुनें, मेरी तमाम बातों पर कान धरें! \v 2 अब मैं अपना मुँह खोल देता हूँ, मेरी ज़बान बोलती है। \v 3 मेरे अलफ़ाज़ सीधी राह पर चलनेवाले दिल से उभर आते हैं, मेरे होंट दियानतदारी से वह कुछ बयान करते हैं जो मैं जानता हूँ। \v 4 अल्लाह के रूह ने मुझे बनाया, क़ादिरे-मुतलक़ के दम ने मुझे ज़िंदगी बख़्शी। \p \v 5 अगर आप इस क़ाबिल हों तो मुझे जवाब दें और अपनी बातें तरतीब से पेश करके मेरा मुक़ाबला करें। \v 6 अल्लाह की नज़र में मैं तो आपके बराबर हूँ, मुझे भी मिट्टी से लेकर तश्कील दिया गया है। \v 7 चुनाँचे मुझे आपके लिए दहशत का बाइस नहीं होना चाहिए, मेरी तरफ़ से आप पर भारी बोझ नहीं आएगा। \p \v 8 आपने मेरे सुनते ही कहा बल्कि आपके अलफ़ाज़ अभी तक मेरे कानों में गूँज रहे हैं, \v 9 ‘मैं पाक हूँ, मुझसे जुर्म सरज़द नहीं हुआ, मैं बेगुनाह हूँ, मेरा कोई क़ुसूर नहीं। \v 10 तो भी अल्लाह मुझसे झगड़ने के मवाक़े ढूँडता और मुझे अपना दुश्मन समझता है। \v 11 वह मेरे पाँवों को काठ में डालकर मेरी तमाम राहों की पहरादारी करता है।’ \p \v 12 लेकिन आपकी यह बात दुरुस्त नहीं, क्योंकि अल्लाह इनसान से आला है। \v 13 आप उससे झगड़कर क्यों कहते हैं, ‘वह मेरी किसी भी बात का जवाब नहीं देता’? \v 14 शायद इनसान को अल्लाह नज़र न आए, लेकिन वह ज़रूर कभी इस तरीक़े, कभी उस तरीक़े से उससे हमकलाम होता है। \p \v 15 कभी वह ख़ाब या रात की रोया में उससे बात करता है। जब लोग बिस्तर पर लेटकर गहरी नींद सो जाते हैं \v 16 तो अल्लाह उनके कान खोलकर अपनी नसीहतों से उन्हें दहशतज़दा कर देता है। \v 17 यों वह इनसान को ग़लत काम करने और मग़रूर होने से बाज़ रखकर \v 18 उस की जान गढ़े में उतरने और दरियाए-मौत को उबूर करने से रोक देता है। \p \v 19 कभी अल्लाह इनसान की बिस्तर पर दर्द के ज़रीए तरबियत करता है। तब उस की हड्डियों में लगातार जंग होती है। \v 20 उस की जान को ख़ुराक से घिन आती बल्कि उसे लज़ीज़तरीन खाने से भी नफ़रत होती है। \v 21 उसका गोश्त-पोस्त सुकड़कर ग़ायब हो जाता है जबकि जो हड्डियाँ पहले छुपी हुई थीं वह नुमायाँ तौर पर नज़र आती हैं। \v 22 उस की जान गढ़े के क़रीब, उस की ज़िंदगी हलाक करनेवालों के नज़दीक पहुँचती है। \p \v 23 लेकिन अगर कोई फ़रिश्ता, हज़ारों में से कोई सालिस उसके पास हो जो इनसान को सीधी राह दिखाए \v 24 और उस पर तरस खाकर कहे, ‘उसे गढ़े में उतरने से छुड़ा, मुझे फ़िद्या मिल गया है, \v 25 अब उसका जिस्म जवानी की निसबत ज़्यादा तरो-ताज़ा हो जाए और वह दुबारा जवानी की-सी ताक़त पाए’ \v 26 तो फिर वह शख़्स अल्लाह से इल्तिजा करेगा, और अल्लाह उस पर मेहरबान होगा। तब वह बड़ी ख़ुशी से अल्लाह का चेहरा तकता रहेगा। इसी तरह अल्लाह इनसान की रास्तबाज़ी बहाल करता है। \p \v 27 ऐसा शख़्स लोगों के सामने गाएगा और कहेगा, ‘मैंने गुनाह करके सीधी राह टेढ़ी-मेढ़ी कर दी, और मुझे कोई फ़ायदा न हुआ। \v 28 लेकिन उसने फ़िद्या देकर मेरी जान को मौत के गढ़े में उतरने से छुड़ाया। अब मेरी ज़िंदगी नूर से लुत्फ़अंदोज़ होगी।’ \p \v 29 अल्लाह इनसान के साथ यह सब कुछ दो-चार मरतबा करता है \v 30 ताकि उस की जान गढ़े से वापस आए और वह ज़िंदगी के नूर से रौशन हो जाए। \p \v 31 ऐ अय्यूब, ध्यान से मेरी बात सुनें, ख़ामोश हो जाएँ ताकि मैं बात करूँ। \v 32 अगर आप जवाब में कुछ बताना चाहें तो बताएँ। बोलें, क्योंकि मैं आपको रास्तबाज़ ठहराने की आरज़ू रखता हूँ। \v 33 लेकिन अगर आप कुछ बयान नहीं कर सकते तो मेरी सुनें, चुप रहें ताकि मैं आपको हिकमत की तालीम दूँ।” \c 34 \s1 अल्लाह हर एक को मुनासिब अज्र देता है \p \v 1 फिर इलीहू ने बात जारी रखकर कहा, \p \v 2 “ऐ दानिशमंदो, मेरे अलफ़ाज़ सुनें! ऐ आलिमो, मुझ पर कान धरें! \v 3 क्योंकि कान यों अलफ़ाज़ की जाँच-पड़ताल करता है जिस तरह ज़बान ख़ुराक को चख लेती है। \v 4 आएँ, हम अपने लिए वह कुछ चुन लें जो दुरुस्त है, आपस में जान लें कि क्या कुछ अच्छा है। \v 5 अय्यूब ने कहा है, ‘गो मैं बेगुनाह हूँ तो भी अल्लाह ने मुझे मेरे हुक़ूक़ से महरूम कर रखा है। \v 6 जो फ़ैसला मेरे बारे में किया गया है उसे मैं झूट क़रार देता हूँ। गो मैं बेक़ुसूर हूँ तो भी तीर ने मुझे यों ज़ख़मी कर दिया कि उसका इलाज मुमकिन ही नहीं।’ \v 7 अब मुझे बताएँ, क्या कोई अय्यूब जैसा बुरा है? वह तो कुफ़र की बातें पानी की तरह पीते, \v 8 बदकारों की सोहबत में चलते और बेदीनों के साथ अपना वक़्त गुज़ारते हैं। \v 9 क्योंकि वह दावा करते हैं कि अल्लाह से लुत्फ़अंदोज़ होना इनसान के लिए बेफ़ायदा है। \p \v 10 चुनाँचे ऐ समझदार मर्दो, मेरी बात सुनें! यह कैसे हो सकता है कि अल्लाह शरीर काम करे? यह तो मुमकिन ही नहीं कि क़ादिरे-मुतलक़ नाइनसाफ़ी करे। \v 11 यक़ीनन वह इनसान को उसके आमाल का मुनासिब अज्र देकर उस पर वह कुछ लाता है जिसका तक़ाज़ा उसका चाल-चलन करता है। \v 12 यक़ीनन अल्लाह बेदीन हरकतें नहीं करता, क़ादिरे-मुतलक़ इनसाफ़ का ख़ून नहीं करता। \v 13 किसने ज़मीन को अल्लाह के हवाले किया? किसने उसे पूरी दुनिया पर इख़्तियार दिया? कोई नहीं! \v 14 अगर वह कभी इरादा करे कि अपनी रूह और अपना दम इनसान से वापस ले \v 15 तो तमाम लोग दम छोड़कर दुबारा ख़ाक हो जाएंगे। \p \v 16 ऐ अय्यूब, अगर आपको समझ है तो सुनें, मेरी बातों पर ध्यान दें। \v 17 जो इनसाफ़ से नफ़रत करे क्या वह हुकूमत कर सकता है? क्या आप उसे मुजरिम ठहराना चाहते हैं जो रास्तबाज़ और क़ादिरे-मुतलक़ है, \v 18 जो बादशाह से कह सकता है, ‘ऐ बदमाश!’ और शुरफ़ा से, ‘ऐ बेदीनो!’? \v 19 वह तो न रईसों की जानिबदारी करता, न ओहदेदारों को पस्तहालों पर तरजीह देता है, क्योंकि सब ही को उसके हाथों ने बनाया है। \v 20 वह पल-भर में, आधी रात ही मर जाते हैं। शुरफ़ा को हिलाया जाता है तो वह कूच कर जाते हैं, ताक़तवरों को बग़ैर किसी तगो-दौ के हटाया जाता है। \p \v 21 क्योंकि अल्लाह की आँखें इनसान की राहों पर लगी रहती हैं, आदमज़ाद का हर क़दम उसे नज़र आता है। \v 22 कहीं इतनी तारीकी या घना अंधेरा नहीं होता कि बदकार उसमें छुप सके। \v 23 और अल्लाह किसी भी इनसान को उस वक़्त से आगाह नहीं करता जब उसे इलाही तख़्ते-अदालत के सामने आना है। \v 24 उसे तहक़ीक़ात की ज़रूरत ही नहीं बल्कि वह ज़ोरावरों को पाश पाश करके दूसरों को उनकी जगह खड़ा कर देता है। \v 25 वह तो उनकी हरकतों से वाक़िफ़ है और उन्हें रात के वक़्त यों तहो-बाला कर सकता है कि चूर चूर हो जाएँ। \v 26 उनकी बेदीनी के जवाब में वह उन्हें सबकी नज़रों के सामने पटख़ देता है। \v 27 उस की पैरवी से हटने और उस की राहों का लिहाज़ न करने का यही नतीजा है। \v 28 क्योंकि उनकी हरकतों के बाइस पस्तहालों की चीख़ें अल्लाह के सामने और मुसीबतज़दों की इल्तिजाएँ उसके कान तक पहुँचीं। \v 29 लेकिन अगर वह ख़ामोश भी रहे तो कौन उसे मुजरिम क़रार दे सकता है? अगर वह अपने चेहरे को छुपाए रखे तो कौन उसे देख सकता है? वह तो क़ौम पर बल्कि हर फ़रद पर हुकूमत करता है \v 30 ताकि शरीर हुकूमत न करें और क़ौम फँस न जाए। \p \v 31 बेहतर है कि आप अल्लाह से कहें, ‘मुझे ग़लत राह पर लाया गया है, आइंदा मैं दुबारा बुरा काम नहीं करूँगा। \v 32 जो कुछ मुझे नज़र नहीं आता वह मुझे सिखा, अगर मुझसे नाइनसाफ़ी हुई है तो आइंदा ऐसा नहीं करूँगा।’ \v 33 क्या अल्लाह को आपको वह अज्र देना चाहिए जो आपकी नज़र में मुनासिब है, गो आपने उसे रद्द कर दिया है? लाज़िम है कि आप ख़ुद ही फ़ैसला करें, न कि मैं। लेकिन ज़रा वह कुछ पेश करें जो कुछ आप सहीह समझते हैं। \v 34 समझदार लोग बल्कि हर दानिशमंद जो मेरी बात सुने फ़रमाएगा, \v 35 ‘अय्यूब इल्म के साथ बात नहीं कर रहा, उसके अलफ़ाज़ फ़हम से ख़ाली हैं। \v 36 काश अय्यूब की पूरी जाँच-पड़ताल की जाए, क्योंकि वह शरीरों के-से जवाब पेश करता, \v 37 वह अपने गुनाह में इज़ाफ़ा करके हमारे रूबरू अपने जुर्म पर शक डालता और अल्लाह पर मुतअद्दिद इलज़ामात लगाता है’।” \c 35 \s1 अपने आपको रास्तबाज़ मत ठहराना \p \v 1 फिर इलीहू ने अपनी बात जारी रखी, \p \v 2 “आप कहते हैं, ‘मैं अल्लाह से ज़्यादा रास्तबाज़ हूँ।’ क्या आप यह बात दुरुस्त समझते हैं \v 3 या यह कि ‘मुझे क्या फ़ायदा है, गुनाह न करने से मुझे क्या नफ़ा होता है?’ \v 4 मैं आपको और साथी दोस्तों को इसका जवाब बताता हूँ। \p \v 5 अपनी निगाह आसमान की तरफ़ उठाएँ, बुलंदियों के बादलों पर ग़ौर करें। \v 6 अगर आपने गुनाह किया तो अल्लाह को क्या नुक़सान पहुँचा है? गो आपसे मुतअद्दिद जरायम भी सरज़द हुए हों ताहम वह मुतअस्सिर नहीं होगा। \v 7 रास्तबाज़ ज़िंदगी गुज़ारने से आप उसे क्या दे सकते हैं? आपके हाथों से अल्लाह को क्या हासिल हो सकता है? कुछ भी नहीं! \v 8 आपके हमजिंस इनसान ही आपकी बेदीनी से मुतअस्सिर होते हैं, और आदमज़ाद ही आपकी रास्तबाज़ी से फ़ायदा उठाते हैं। \p \v 9 जब लोगों पर सख़्त ज़ुल्म होता है तो वह चीख़ते-चिल्लाते और बड़ों की ज़्यादती के बाइस मदद के लिए आवाज़ देते हैं। \v 10 लेकिन कोई नहीं कहता, ‘अल्लाह, मेरा ख़ालिक़ कहाँ है? वह कहाँ है जो रात के दौरान नग़मे अता करता, \v 11 जो हमें ज़मीन पर चलनेवाले जानवरों की निसबत ज़्यादा तालीम देता, हमें परिंदों से ज़्यादा दानिशमंद बनाता है?’ \v 12 उनकी चीख़ों के बावुजूद अल्लाह जवाब नहीं देता, क्योंकि वह घमंडी और बुरे हैं। \p \v 13 यक़ीनन अल्लाह ऐसी बातिल फ़रियाद नहीं सुनता, क़ादिरे-मुतलक़ उस पर ध्यान ही नहीं देता। \v 14 तो फिर वह आप पर क्यों तवज्जुह दे जब आप दावा करते हैं, ‘मैं उसे नहीं देख सकता,’ और ‘मेरा मामला उसके सामने ही है, मैं अब तक उसका इंतज़ार कर रहा हूँ’? \v 15 वह आपकी क्यों सुने जब आप कहते हैं, ‘अल्लाह का ग़ज़ब कभी सज़ा नहीं देता, उसे बुराई की परवा ही नहीं’? \v 16 जब अय्यूब मुँह खोलता है तो बेमानी बातें निकलती हैं। जो मुतअद्दिद अलफ़ाज़ वह पेश करता है वह इल्म से ख़ाली हैं।” \c 36 \s1 अल्लाह कितना अज़ीम है \p \v 1 इलीहू ने अपनी बात जारी रखी, \p \v 2 “थोड़ी देर के लिए सब्र करके मुझे इसकी तशरीह करने दें, क्योंकि मज़ीद बहुत कुछ है जो अल्लाह के हक़ में कहना है। \v 3 मैं दूर दूर तक फिरूँगा ताकि वह इल्म हासिल करूँ जिससे मेरे ख़ालिक़ की रास्ती साबित हो जाए। \v 4 यक़ीनन जो कुछ मैं कहूँगा वह फ़रेबदेह नहीं होगा। एक ऐसा आदमी आपके सामने खड़ा है जिसने ख़ुलूसदिली से अपना इल्म हासिल किया है। \p \v 5 गो अल्लाह अज़ीम क़ुदरत का मालिक है ताहम वह ख़ुलूसदिलों को रद्द नहीं करता। \v 6 वह बेदीन को ज़्यादा देर तक जीने नहीं देता, लेकिन मुसीबतज़दों का इनसाफ़ करता है। \v 7 वह अपनी आँखों को रास्तबाज़ों से नहीं फेरता बल्कि उन्हें बादशाहों के साथ तख़्तनशीन करके बुलंदियों पर सरफ़राज़ करता है। \p \v 8 फिर अगर उन्हें ज़ंजीरों में जकड़ा जाए, उन्हें मुसीबत के रस्सों में गिरिफ़्तार किया जाए \v 9 तो वह उन पर ज़ाहिर करता है कि उनसे क्या कुछ सरज़द हुआ है, वह उन्हें उनके जरायम पेश करके उन्हें दिखाता है कि उनका तकब्बुर का रवैया है। \v 10 वह उनके कानों को तरबियत के लिए खोलकर उन्हें हुक्म देता है कि अपनी नाइनसाफ़ी से बाज़ आकर वापस आओ। \v 11 अगर वह मानकर उस की ख़िदमत करने लगें तो फिर वह जीते-जी अपने दिन ख़ुशहाली में और अपने साल सुकून से गुज़ारेंगे। \v 12 लेकिन अगर न मानें तो उन्हें दरियाए-मौत को उबूर करना पड़ेगा, वह इल्म से महरूम रहकर मर जाएंगे। \p \v 13 बेदीन अपनी हरकतों से अपने आप पर इलाही ग़ज़ब लाते हैं। अल्लाह उन्हें बाँध भी ले, लेकिन वह मदद के लिए नहीं पुकारते। \v 14 जवानी में ही उनकी जान निकल जाती, उनकी ज़िंदगी मुक़द्दस फ़रिश्तों के हाथों ख़त्म हो जाती है। \v 15 लेकिन अल्लाह मुसीबतज़दा को उस की मुसीबत के ज़रीए नजात देता, उस पर होनेवाले ज़ुल्म की मारिफ़त उसका कान खोल देता है। \p \v 16 वह आपको भी मुसीबत के मुँह से निकलने की तरग़ीब दिलाकर एक ऐसी खुली जगह पर लाना चाहता है जहाँ रुकावट नहीं है, जहाँ आपकी मेज़ उम्दा खानों से भरी रहेगी। \v 17 लेकिन इस वक़्त आप अदालत का वह प्याला पीकर सेर हो गए हैं जो बेदीनों के नसीब में है, इस वक़्त अदालत और इनसाफ़ ने आपको अपनी सख़्त गिरिफ़्त में ले लिया है। \v 18 ख़बरदार कि यह बात आपको कुफ़र बकने पर न उकसाए, ऐसा न हो कि तावान की बड़ी रक़म आपको ग़लत राह पर ले जाए। \v 19 क्या आपकी दौलत आपका दिफ़ा करके आपको मुसीबत से बचाएगी? या क्या आपकी सिर-तोड़ कोशिशें यह सरंजाम दे सकती हैं? हरगिज़ नहीं! \v 20 रात की आरज़ू न करें, उस वक़्त की जब क़ौमें जहाँ भी हों नेस्तो-नाबूद हो जाती हैं। \v 21 ख़बरदार रहें कि नाइनसाफ़ी की तरफ़ रुजू न करें, क्योंकि आपको इसी लिए मुसीबत से आज़माया जा रहा है। \p \v 22 अल्लाह अपनी क़ुदरत में सरफ़राज़ है। कौन उस जैसा उस्ताद है? \v 23 किसने मुक़र्रर किया कि उसे किस राह पर चलना है? कौन कह सकता है, ‘तूने ग़लत काम किया’? कोई नहीं! \v 24 उसके काम की तमजीद करना न भूलें, उस सारे काम की जिसकी लोगों ने अपने गीतों में हम्दो-सना की है। \v 25 हर शख़्स ने यह काम देख लिया, इनसान ने दूर दूर से उसका मुलाहज़ा किया है। \p \v 26 अल्लाह अज़ीम है और हम उसे नहीं जानते, उसके सालों की तादाद मालूम नहीं कर सकते। \v 27 क्योंकि वह पानी के क़तरे ऊपर खींचकर धुंध से बारिश निकाल लेता है, \v 28 वह बारिश जो बादल ज़मीन पर बरसा देते और जिसकी बौछाड़ें इनसान पर पड़ती हैं। \v 29 कौन समझ सकता है कि बादल किस तरह छा जाते, कि अल्लाह के मसकन से बिजलियाँ किस तरह कड़कती हैं? \v 30 वह अपने इर्दगिर्द रौशनी फैलाकर समुंदर की जड़ों तक सब कुछ रौशन करता है। \v 31 यों वह बादलों से क़ौमों की परवरिश करता, उन्हें कसरत की ख़ुराक मुहैया करता है। \v 32 वह अपनी मुट्ठियों को बादल की बिजलियों से भरकर हुक्म देता है कि क्या चीज़ अपना निशाना बनाएँ। \v 33 उसके बादलों की गरजती आवाज़ उसके ग़ज़ब का एलान करती, नाइनसाफ़ी पर उसके शदीद क़हर को ज़ाहिर करती है। \c 37 \p \v 1 यह सोचकर मेरा दिल लरज़कर अपनी जगह से उछल पड़ता है। \v 2 सुनें और उस की ग़ज़बनाक आवाज़ पर ग़ौर करें, उस ग़ुर्राती आवाज़ पर जो उसके मुँह से निकलती है। \v 3 आसमान तले हर मक़ाम पर बल्कि ज़मीन की इंतहा तक वह अपनी बिजली चमकने देता है। \v 4 इसके बाद कड़कती आवाज़ सुनाई देती, अल्लाह की रोबदार आवाज़ गरज उठती है। और जब उस की आवाज़ सुनाई देती है तो वह बिजलियों को नहीं रोकता। \p \v 5 अल्लाह अनोखे तरीक़े से अपनी आवाज़ गरजने देता है। साथ साथ वह ऐसे अज़ीम काम करता है जो हमारी समझ से बाहर हैं। \v 6 क्योंकि वह बर्फ़ को फ़रमाता है, ‘ज़मीन पर पड़ जा’ और मूसलाधार बारिश को, ‘अपना पूरा ज़ोर दिखा।’ \v 7 यों वह हर इनसान को उसके घर में रहने पर मजबूर करता है ताकि सब जान लें कि अल्लाह काम में मसरूफ़ है। \v 8 तब जंगली जानवर भी अपने भटों में छुप जाते, अपने घरों में पनाह लेते हैं। \p \v 9 तूफ़ान अपने कमरे से निकल आता, शिमाली हवा मुल्क में ठंड फैला देती है। \v 10 अल्लाह फूँक मारता तो पानी जम जाता, उस की सतह दूर दूर तक मुंजमिद हो जाती है। \v 11 अल्लाह बादलों को नमी से बोझल करके उनके ज़रीए दूर तक अपनी बिजली चमकाता है। \v 12 उस की हिदायत पर वह मँडलाते हुए उसका हर हुक्म तकमील तक पहुँचाते हैं। \v 13 यों वह उन्हें लोगों की तरबियत करने, अपनी ज़मीन को बरकत देने या अपनी शफ़क़त दिखाने के लिए भेज देता है। \p \v 14 ऐ अय्यूब, मेरी इस बात पर ध्यान दें, रुककर अल्लाह के अज़ीम कामों पर ग़ौर करें। \v 15 क्या आपको मालूम है कि अल्लाह अपने कामों को कैसे तरतीब देता है, कि वह अपने बादलों से बिजली किस तरह चमकने देता है? \v 16 क्या आप बादलों की नक़लो-हरकत जानते हैं? क्या आपको उसके अनोखे कामों की समझ आती है जो कामिल इल्म रखता है? \v 17 जब ज़मीन जुनूबी लू की ज़द में आकर चुप हो जाती और आपके कपड़े तपने लगते हैं \v 18 तो क्या आप अल्लाह के साथ मिलकर आसमान को ठोंक ठोंककर पीतल के आईने की मानिंद सख़्त बना सकते हैं? हरगिज़ नहीं! \p \v 19 हमें बताएँ कि अल्लाह से क्या कहें! अफ़सोस, अंधेरे के बाइस हम अपने ख़यालात को तरतीब नहीं दे सकते। \v 20 अगर मैं अपनी बात पेश करूँ तो क्या उसे कुछ मालूम हो जाएगा जिसका पहले इल्म न था? क्या कोई भी कुछ बयान कर सकता है जो उसे पहले मालूम न हो? कभी नहीं! \v 21 एक वक़्त धूप नज़र नहीं आती और बादल ज़मीन पर साया डालते हैं, फिर हवा चलने लगती और मौसम साफ़ हो जाता है। \v 22 शिमाल से सुनहरी चमक क़रीब आती और अल्लाह रोबदार शानो-शौकत से घिरा हुआ आ पहुँचता है। \v 23 हम तो क़ादिरे-मुतलक़ तक नहीं पहुँच सकते। उस की क़ुदरत आला और रास्ती ज़ोरावर है, वह कभी इनसाफ़ का ख़ून नहीं करता। \v 24 इसलिए आदमज़ाद उससे डरते और दिल के दानिशमंद उसका ख़ौफ़ मानते हैं।” \c 38 \s1 अल्लाह का जवाब \p \v 1 फिर अल्लाह ख़ुद अय्यूब से हमकलाम हुआ। तूफ़ान में से उसने उसे जवाब दिया, \p \v 2 “यह कौन है जो समझ से ख़ाली बातें करने से मेरे मनसूबे के सहीह मतलब पर परदा डालता है? \v 3 मर्द की तरह कमरबस्ता हो जा! मैं तुझसे सवाल करता हूँ, और तू मुझे तालीम दे। \p \v 4 तू कहाँ था जब मैंने ज़मीन की बुनियाद रखी? अगर तुझे इसका इल्म हो तो मुझे बता! \v 5 किसने उस की लंबाई और चौड़ाई मुक़र्रर की? क्या तुझे मालूम है? किसने नापकर उस की पैमाइश की? \v 6 उसके सतून किस चीज़ पर लगाए गए? किसने उसके कोने का बुनियादी पत्थर रखा, \v 7 उस वक़्त जब सुबह के सितारे मिलकर शादियाना बजा रहे, तमाम फ़रिश्ते ख़ुशी के नारे लगा रहे थे? \p \v 8 जब समुंदर रहम से फूट निकला तो किसने दरवाज़े बंद करके उस पर क़ाबू पाया? \v 9 उस वक़्त मैंने बादलों को उसका लिबास बनाया और उसे घने अंधेरे में यों लपेटा जिस तरह नौज़ाद को पोतड़ों में लपेटा जाता है। \v 10 उस की हुदूद मुक़र्रर करके मैंने उसे रोकने के दरवाज़े और कुंडे लगाए। \v 11 मैं बोला, ‘तुझे यहाँ तक आना है, इससे आगे न बढ़ना, तेरी रोबदार लहरों को यहीं रुकना है।’ \p \v 12 क्या तूने कभी सुबह को हुक्म दिया या उसे तुलू होने की जगह दिखाई \v 13 ताकि वह ज़मीन के किनारों को पकड़कर बेदीनों को उससे झाड़ दे? \v 14 उस की रौशनी में ज़मीन यों तश्कील पाती है जिस तरह मिट्टी जिस पर मुहर लगाई जाए। सब कुछ रंगदार लिबास पहने नज़र आता है। \v 15 तब बेदीनों की रौशनी रोकी जाती, उनका उठाया हुआ बाज़ू तोड़ा जाता है। \p \v 16 क्या तू समुंदर के सरचश्मों तक पहुँचकर उस की गहराइयों में से गुज़रा है? \v 17 क्या मौत के दरवाज़े तुझ पर ज़ाहिर हुए, तुझे घने अंधेरे के दरवाज़े नज़र आए हैं? \v 18 क्या तुझे ज़मीन के वसी मैदानों की पूरी समझ आई है? मुझे बता अगर यह सब कुछ जानता है! \p \v 19 रौशनी के मंबा तक ले जानेवाला रास्ता कहाँ है? अंधेरे की रिहाइशगाह कहाँ है? \v 20 क्या तू उन्हें उनके मक़ामों तक पहुँचा सकता है? क्या तू उनके घरों तक ले जानेवाली राहों से वाक़िफ़ है? \v 21 बेशक तू इसका इल्म रखता है, क्योंकि तू उस वक़्त जन्म ले चुका था जब यह पैदा हुए। तू तो क़दीम ज़माने से ही ज़िंदा है! \p \v 22 क्या तू वहाँ तक पहुँच गया है जहाँ बर्फ़ के ज़ख़ीरे जमा होते हैं? क्या तूने ओलों के गोदामों को देख लिया है? \v 23 मैं उन्हें मुसीबत के वक़्त के लिए महफ़ूज़ रखता हूँ, ऐसे दिनों के लिए जब लड़ाई और जंग छिड़ जाए। \v 24 मुझे बता, उस जगह तक किस तरह पहुँचना है जहाँ रौशनी तक़सीम होती है, या उस जगह जहाँ से मशरिक़ी हवा निकलकर ज़मीन पर बिखर जाती है? \p \v 25 किसने मूसलाधार बारिश के लिए रास्ता और गरजते तूफ़ान के लिए राह बनाई \v 26 ताकि इनसान से ख़ाली ज़मीन और ग़ैरआबाद रेगिस्तान की आबपाशी हो जाए, \v 27 ताकि वीरानो-सुनसान बयाबान की प्यास बुझ जाए और उससे हरियाली फूट निकले? \v 28 क्या बारिश का बाप है? कौन शबनम के क़तरों का वालिद है? \p \v 29 बर्फ़ किस माँ के पेट से पैदा हुई? जो पाला आसमान से आकर ज़मीन पर पड़ता है किसने उसे जन्म दिया? \v 30 जब पानी पत्थर की तरह सख़्त हो जाए बल्कि गहरे समुंदर की सतह भी जम जाए तो कौन यह सरंजाम देता है? \v 31 क्या तू ख़ोशाए-परवीन को बाँध सकता या जौज़े की ज़ंजीरों को खोल सकता है? \v 32 क्या तू करवा सकता है कि सितारों के मुख़्तलिफ़ झुरमुट उनके मुक़र्ररा औक़ात के मुताबिक़ निकल आएँ? क्या तू दुब्बे-अकबर की उसके बच्चों समेत क़ियादत करने के क़ाबिल है? \v 33 क्या तू आसमान के क़वानीन जानता या उस की ज़मीन पर हुकूमत मुतैयिन करता है? \p \v 34 क्या जब तू बुलंद आवाज़ से बादलों को हुक्म दे तो वह तुझ पर मूसलाधार बारिश बरसाते हैं? \v 35 क्या तू बादल की बिजली ज़मीन पर भेज सकता है? क्या वह तेरे पास आकर कहती है, ‘मैं ख़िदमत के लिए हाज़िर हूँ’? \v 36 किसने मिसर के लक़लक़ को हिकमत दी, मुरग़ को समझ अता की? \v 37 किस को इतनी दानाई हासिल है कि वह बादलों को गिन सके? कौन आसमान के इन घड़ों को उस वक़्त उंडेल सकता है \v 38 जब मिट्टी ढाले हुए लोहे की तरह सख़्त हो जाए और ढेले एक दूसरे के साथ चिपक जाएँ? कोई नहीं! \p \v 39 क्या तू ही शेरनी के लिए शिकार करता या शेरों को सेर करता है \v 40 जब वह अपनी छुपने की जगहों में दबक जाएँ या गुंजान जंगल में कहीं ताक लगाए बैठे हों? \v 41 कौन कौवे को ख़ुराक मुहैया करता है जब उसके बच्चे भूक के बाइस अल्लाह को आवाज़ दें और मारे मारे फिरें? \c 39 \p \v 1 क्या तुझे मालूम है कि पहाड़ी बकरियों के बच्चे कब पैदा होते हैं? जब हिरनी अपना बच्चा जन्म देती है तो क्या तू इसको मुलाहज़ा करता है? \v 2 क्या तू वह महीने गिनता रहता है जब बच्चे हिरनियों के पेट में हों? क्या तू जानता है कि किस वक़्त बच्चे जन्म देती हैं? \v 3 उस दिन वह दबक जाती, बच्चे निकल आते और दर्दे-ज़ह ख़त्म हो जाता है। \v 4 उनके बच्चे ताक़तवर होकर खुले मैदान में फलते-फूलते, फिर एक दिन चले जाते हैं और अपनी माँ के पास वापस नहीं आते। \p \v 5 किसने जंगली गधे को खुला छोड़ दिया? किसने उसके रस्से खोल दिए? \v 6 मैं ही ने बयाबान उसका घर बना दिया, मैं ही ने मुक़र्रर किया कि बंजर ज़मीन उस की रिहाइशगाह हो। \v 7 वह शहर का शोर-शराबा देखकर हँस उठता, और उसे हाँकनेवाले की आवाज़ सुननी नहीं पड़ती। \v 8 वह चरने के लिए पहाड़ी इलाक़े में इधर-उधर घूमता और हरियाली का खोज लगाता रहता है। \p \v 9 क्या जंगली बैल तेरी ख़िदमत करने के लिए तैयार होगा? क्या वह कभी रात को तेरी चरनी के पास गुज़ारेगा? \v 10 क्या तू उसे बाँधकर हल चला सकता है? क्या वह वादी में तेरे पीछे चलकर सुहागा फेरेगा? \v 11 क्या तू उस की बड़ी ताक़त देखकर उस पर एतमाद करेगा? क्या तू अपना सख़्त काम उसके सुपुर्द करेगा? \v 12 क्या तू भरोसा कर सकता है कि वह तेरा अनाज जमा करके गाहने की जगह पर ले आए? हरगिज़ नहीं! \p \v 13 शुतुरमुरग़ ख़ुशी से अपने परों को फड़फड़ाता है। लेकिन क्या उसका शाहपर लक़लक़ या बाज़ के शाहपर की मानिंद है? \v 14 वह तो अपने अंडे ज़मीन पर अकेले छोड़ता है, और वह मिट्टी ही पर पकते हैं। \v 15 शुतुरमुरग़ को ख़याल तक नहीं आता कि कोई उन्हें पाँवों तले कुचल सकता या कोई जंगली जानवर उन्हें रौंद सकता है। \v 16 लगता नहीं कि उसके अपने बच्चे हैं, क्योंकि उसका उनके साथ सुलूक इतना सख़्त है। अगर उस की मेहनत नाकाम निकले तो उसे परवा ही नहीं, \v 17 क्योंकि अल्लाह ने उसे हिकमत से महरूम रखकर उसे समझ से न नवाज़ा। \v 18 तो भी वह इतनी तेज़ी से उछलकर भाग जाता है कि घोड़े और घुड़सवार की दौड़ देखकर हँसने लगता है। \p \v 19 क्या तू घोड़े को उस की ताक़त देकर उस की गरदन को अयाल से आरास्ता करता है? \v 20 क्या तू ही उसे टिड्डी की तरह फलाँगने देता है? जब वह ज़ोर से अपने नथनों को फूलाकर आवाज़ निकालता है तो कितना रोबदार लगता है! \v 21 वह वादी में सुम मार मारकर अपनी ताक़त की ख़ुशी मनाता, फिर भागकर मैदाने-जंग में आ जाता है। \v 22 वह ख़ौफ़ का मज़ाक़ उड़ाता और किसी से भी नहीं डरता, तलवार के रूबरू भी पीछे नहीं हटता। \v 23 उसके ऊपर तरकश खड़खड़ाता, नेज़ा और शमशेर चमकती है। \v 24 वह बड़ा शोर मचाकर इतनी तेज़ी और जोशो-ख़ुरोश से दुश्मन पर हमला करता है कि बिगुल बजते वक़्त भी रोका नहीं जाता। \v 25 जब भी बिगुल बजे वह ज़ोर से हिनहिनाता और दूर ही से मैदाने-जंग, कमाँडरों का शोर और जंग के नारे सूँघ लेता है। \p \v 26 क्या बाज़ तेरी ही हिकमत के ज़रीए हवा में उड़कर अपने परों को जुनूब की जानिब फैला देता है? \v 27 क्या उक़ाब तेरे ही हुक्म पर बुलंदियों पर मँडलाता और ऊँची ऊँची जगहों पर अपना घोंसला बना लेता है? \v 28 वह चट्टान पर रहता, उसके टूटे-फूटे किनारों और क़िलाबंद जगहों पर बसेरा करता है। \v 29 वहाँ से वह अपने शिकार का खोज लगाता है, उस की आँखें दूर दूर तक देखती हैं। \v 30 उसके बच्चे ख़ून के लालच में रहते, और जहाँ भी लाश हो वहाँ वह हाज़िर होता है।” \c 40 \s1 अय्यूब रब को जवाब नहीं दे सकता \p \v 1 रब ने अय्यूब से पूछा, \p \v 2 “क्या मलामत करनेवाला अदालत में क़ादिरे-मुतलक़ से झगड़ना चाहता है? अल्लाह की सरज़निश करनेवाला उसे जवाब दे!” \p \v 3 तब अय्यूब ने जवाब देकर रब से कहा, \p \v 4 “मैं तो नालायक़ हूँ, मैं किस तरह तुझे जवाब दूँ? मैं अपने मुँह पर हाथ रखकर ख़ामोश रहूँगा। \v 5 एक बार मैंने बात की और इसके बाद मज़ीद एक दफ़ा, लेकिन अब से मैं जवाब में कुछ नहीं कहूँगा।” \s1 अल्लाह का जवाब : क्या तुझे मेरी जैसी क़ुदरत हासिल है? \p \v 6 तब अल्लाह तूफ़ान में से अय्यूब से हमकलाम हुआ, \p \v 7 “मर्द की तरह कमरबस्ता हो जा! मैं तुझसे सवाल करूँ और तू मुझे तालीम दे। \v 8 क्या तू वाक़ई मेरा इनसाफ़ मनसूख़ करके मुझे मुजरिम ठहराना चाहता है ताकि ख़ुद रास्तबाज़ ठहरे? \v 9 क्या तेरा बाज़ू अल्लाह के बाज़ू जैसा ज़ोरावर है? क्या तेरी आवाज़ उस की आवाज़ की तरह कड़कती है। \v 10 आ, अपने आपको शानो-शौकत से आरास्ता कर, इज़्ज़तो-जलाल से मुलब्बस हो जा! \v 11 बयकवक़्त अपना शदीद क़हर मुख़्तलिफ़ जगहों पर नाज़िल कर, हर मग़रूर को अपना निशाना बनाकर उसे ख़ाक में मिला दे। \v 12 हर मुतकब्बिर पर ग़ौर करके उसे पस्त कर। जहाँ भी बेदीन हो वहीं उसे कुचल दे। \v 13 उन सबको मिट्टी में छुपा दे, उन्हें रस्सों में जकड़कर किसी ख़ुफ़िया जगह गिरिफ़्तार कर। \v 14 तब ही मैं तेरी तारीफ़ करके मान जाऊँगा कि तेरा दहना हाथ तुझे नजात दे सकता है। \s1 अल्लाह की क़ुदरत और हिकमत की दो मिसालें \p \v 15 बहेमोत \f + \fr 40:15 \ft साइंसदान मुत्तफ़िक़ नहीं कि यह कौन-सा जानवर था। \f* पर ग़ौर कर जिसे मैंने तुझे ख़लक़ करते वक़्त बनाया और जो बैल की तरह घास खाता है। \v 16 उस की कमर में कितनी ताक़त, उसके पेट के पट्ठों में कितनी क़ुव्वत है। \v 17 वह अपनी दुम को देवदार के दरख़्त की तरह लटकने देता है, उस की रानों की नसें मज़बूती से एक दूसरी से जुड़ी हुई हैं। \v 18 उस की हड्डियाँ पीतल के-से पायप, लोहे के-से सरीए हैं। \v 19 वह अल्लाह के कामों में से अव्वल है, उसके ख़ालिक़ ही ने उसे उस की तलवार दी। \v 20 पहाड़ियाँ उसे अपनी पैदावार पेश करती, खुले मैदान के तमाम जानवर वहाँ खेलते कूदते हैं। \v 21 वह काँटेदार झाड़ियों के नीचे आराम करता, सरकंडों और दलदल में छुपा रहता है। \v 22 ख़ारदार झाड़ियाँ उस पर साया डालती और नदी के सफ़ेदा के दरख़्त उसे घेरे रखते हैं। \v 23 जब दरिया सैलाब की सूरत इख़्तियार करे तो वह नहीं भागता। गो दरियाए-यरदन उसके मुँह पर फूट पड़े तो भी वह अपने आपको महफ़ूज़ समझता है। \v 24 क्या कोई उस की आँखों में उँगलियाँ डालकर उसे पकड़ सकता है? अगर उसे फंदे में पकड़ा भी जाए तो क्या कोई उस की नाक को छेद सकता है? हरगिज़ नहीं! \c 41 \p \v 1 क्या तू लिवियातान \f + \fr 41:1 \ft साइंसदान मुत्तफ़िक़ नहीं कि यह कौन-सा जानवर था। \f* अज़दहे को मछली के काँटे से पकड़ सकता या उस की ज़बान को रस्से से बाँध सकता है? \v 2 क्या तू उस की नाक छेदकर उसमें से रस्सा गुज़ार सकता या उसके जबड़े को काँटे से चीर सकता है? \v 3 क्या वह कभी तुझसे बार बार रहम माँगेगा या नरम नरम अलफ़ाज़ से तेरी ख़ुशामद करेगा? \v 4 क्या वह कभी तेरे साथ अहद करेगा कि तू उसे अपना ग़ुलाम बनाए रखे? हरगिज़ नहीं! \v 5 क्या तू परिंदे की तरह उसके साथ खेल सकता या उसे बाँधकर अपनी लड़कियों को दे सकता है ताकि वह उसके साथ खेलें? \v 6 क्या सौदागर कभी उसका सौदा करेंगे या उसे ताजिरों में तक़सीम करेंगे? कभी नहीं! \v 7 क्या तू उस की खाल को भालों से या उसके सर को हारपूनों से भर सकता है? \v 8 एक दफ़ा उसे हाथ लगाया तो यह लड़ाई तुझे हमेशा याद रहेगी, और तू आइंदा ऐसी हरकत कभी नहीं करेगा! \p \v 9 यक़ीनन उस पर क़ाबू पाने की हर उम्मीद फ़रेबदेह साबित होगी, क्योंकि उसे देखते ही इनसान गिर जाता है। \v 10 कोई इतना बेधड़क नहीं है कि उसे मुश्तइल करे। तो फिर कौन मेरा सामना कर सकता है? \v 11 किसने मुझे कुछ दिया है कि मैं उसका मुआवज़ा दूँ। आसमान तले हर चीज़ मेरी ही है! \p \v 12 मैं तुझे उसके आज़ा के बयान से महरूम नहीं रखूँगा, कि वह कितना बड़ा, ताक़तवर और ख़ूबसूरत है। \v 13 कौन उस की खाल \f + \fr 41:13 \ft लफ़्ज़ी तरजुमा : बैरूनी लिबास। \f* उतार सकता, कौन उसके ज़िरा-बकतर की दो तहों के अंदर तक पहुँच सकता है? \v 14 कौन उसके मुँह का दरवाज़ा खोलने की जुर्रत करे? उसके हौलनाक दाँत देखकर इनसान के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। \v 15 उस की पीठ पर एक दूसरी से ख़ूब जुड़ी हुई ढालों की क़तारें होती हैं। \v 16 वह इतनी मज़बूती से एक दूसरी से लगी होती हैं कि उनके दरमियान से हवा भी नहीं गुज़र सकती, \v 17 बल्कि यों एक दूसरी से चिमटी और लिपटी रहती हैं कि उन्हें एक दूसरी से अलग नहीं किया जा सकता। \p \v 18 जब छींकें मारे तो बिजली चमक उठती है। उस की आँखें तुलूए-सुबह की पलकों की मानिंद हैं। \v 19 उसके मुँह से मशालें और चिंगारियाँ ख़ारिज होती हैं, \v 20 उसके नथनों से धुआँ यों निकलता है जिस तरह भड़कती और दहकती आग पर रखी गई देग से। \v 21 जब फूँक मारे तो कोयले दहक उठते और उसके मुँह से शोले निकलते हैं। \p \v 22 उस की गरदन में इतनी ताक़त है कि जहाँ भी जाए वहाँ उसके आगे आगे मायूसी फैल जाती है। \v 23 उसके गोश्त-पोस्त की तहें एक दूसरी से ख़ूब जुड़ी हुई हैं, वह ढाले हुए लोहे की तरह मज़बूत और बे-लचक हैं। \v 24 उसका दिल पत्थर जैसा सख़्त, चक्की के निचले पाट जैसा मुस्तहकम है। \p \v 25 जब उठे तो ज़ोरावर डर जाते और दहशत खाकर पीछे हट जाते हैं। \v 26 हथियारों का उस पर कोई असर नहीं होता, ख़ाह कोई तलवार, नेज़े, बरछी या तीर से उस पर हमला क्यों न करे। \v 27 वह लोहे को भूसा और पीतल को गली सड़ी लकड़ी समझता है। \v 28 तीर उसे नहीं भगा सकते, और अगर फ़लाख़न के पत्थर उस पर चलाओ तो उनका असर भूसे के बराबर है। \v 29 डंडा उसे तिनका-सा लगता है, और वह शमशेर का शोर-शराबा सुनकर हँस उठता है। \v 30 उसके पेट पर तेज़ ठीकरे से लगे हैं, और जिस तरह अनाज पर गाहने का आला चलाया जाता है उसी तरह वह कीचड़ पर चलता है। \v 31 जब समुंदर की गहराइयों में से गुज़रे तो पानी उबलती देग की तरह खौलने लगता है। वह मरहम के मुख़्तलिफ़ अजज़ा को मिला मिलाकर तैयार करनेवाले अत्तार की तरह समुंदर को हरकत में लाता है। \v 32 अपने पीछे वह चमकता-दमकता रास्ता छोड़ता है। तब लगता है कि समुंदर की गहराइयों के सफ़ेद बाल हैं। \v 33 दुनिया में उस जैसा कोई मख़लूक़ नहीं, ऐसा बनाया गया है कि कभी न डरे। \v 34 जो भी आला हो उस पर वह हिक़ारत की निगाह से देखता है, वह तमाम रोबदार जानवरों का बादशाह है।” \c 42 \s1 अय्यूब की आख़िरी बात \p \v 1 तब अय्यूब ने जवाब में रब से कहा, \p \v 2 “मैंने जान लिया है कि तू सब कुछ कर पाता है, कि तेरा कोई भी मनसूबा रोका नहीं जा सकता। \v 3 तूने फ़रमाया, ‘यह कौन है जो समझ से ख़ाली बातें करने से मेरे मनसूबे के सहीह मतलब पर परदा डालता है?’ यक़ीनन मैंने ऐसी बातें बयान कीं जो मेरी समझ से बाहर हैं, ऐसी बातें जो इतनी अनोखी हैं कि मैं उनका इल्म रख ही नहीं सकता। \v 4 तूने फ़रमाया, ‘सुन मेरी बात तो मैं बोलूँगा। मैं तुझसे सवाल करता हूँ, और तू मुझे तालीम दे।’ \v 5 पहले मैंने तेरे बारे में सिर्फ़ सुना था, लेकिन अब मेरी अपनी आँखों ने तुझे देखा है। \v 6 इसलिए मैं अपनी बातें मुस्तरद करता, अपने आप पर ख़ाक और राख डालकर तौबा करता हूँ।” \s1 अय्यूब अपने दोस्तों की शफ़ाअत करता है \p \v 7 अय्यूब से यह तमाम बातें कहने के बाद रब इलीफ़ज़ तेमानी से हमकलाम हुआ, “मैं तुझसे और तेरे दो दोस्तों से ग़ुस्से हूँ, क्योंकि गो मेरे बंदे अय्यूब ने मेरे बारे में दुरुस्त बातें कीं मगर तुमने ऐसा नहीं किया। \v 8 चुनाँचे अब सात जवान बैल और सात मेंढे लेकर मेरे बंदे अय्यूब के पास जाओ और अपनी ख़ातिर भस्म होनेवाली क़ुरबानी पेश करो। लाज़िम है कि अय्यूब तुम्हारी शफ़ाअत करे, वरना मैं तुम्हें तुम्हारी हमाक़त का पूरा अज्र दूँगा। लेकिन उस की शफ़ाअत पर मैं तुम्हें मुआफ़ करूँगा, क्योंकि मेरे बंदे अय्यूब ने मेरे बारे में वह कुछ बयान किया जो सहीह है जबकि तुमने ऐसा नहीं किया।” \p \v 9 इलीफ़ज़ तेमानी, बिलदद सूख़ी और ज़ूफ़र नामाती ने वह कुछ किया जो रब ने उन्हें करने को कहा था तो रब ने अय्यूब की सुनी। \p \v 10 और जब अय्यूब ने दोस्तों की शफ़ाअत की तो रब ने उसे इतनी बरकत दी कि आख़िरकार उसे पहले की निसबत दुगनी दौलत हासिल हुई। \v 11 तब उसके तमाम भाई-बहनें और पुराने जाननेवाले उसके पास आए और घर में उसके साथ खाना खाकर उस आफ़त पर अफ़सोस किया जो रब अय्यूब पर लाया था। हर एक ने उसे तसल्ली देकर उसे एक सिक्का और सोने का एक छल्ला दे दिया। \p \v 12 अब से रब ने अय्यूब को पहले की निसबत कहीं ज़्यादा बरकत दी। उसे 14,000 बकरियाँ, 6,000 ऊँट, बैलों की 1,000 जोड़ियाँ और 1,000 गधियाँ हासिल हुईं। \v 13 नीज़, उसके मज़ीद सात बेटे और तीन बेटियाँ पैदा हुईं। \v 14 उसने बेटियों के यह नाम रखे : पहली का नाम यमीमा, दूसरी का क़सियह और तीसरी का क़रन-हप्पूक। \v 15 तमाम मुल्क में अय्यूब की बेटियों जैसी ख़ूबसूरत ख़वातीन पाई नहीं जाती थीं। अय्यूब ने उन्हें भी मीरास में मिलकियत दी, ऐसी मिलकियत जो उनके भाइयों के दरमियान ही थी। \p \v 16 अय्यूब मज़ीद 140 साल ज़िंदा रहा, इसलिए वह अपनी औलाद को चौथी पुश्त तक देख सका। \v 17 फिर वह दराज़ ज़िंदगी से आसूदा होकर इंतक़ाल कर गया।